हिना (मेंहदी)-नारी श्रृंगार-नज़ीर अकबराबादी-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Nazeer Akbarabadi
कुछ दिल फ़रेब हाथ वह कुछ दिल रुवा हिना।
लगती है उस परी की अ़जब खु़शनुमा हिना॥
देखे हैं जब से दिल ने हिनाबस्ता उसके हाथ।
रातों को चौंक पड़ता है कह कर हिना हिना॥
है सुर्ख़ यां तलक कि जो छल्दे हैं नक़रई।
करती है उसके हाथ में, उनको तिला हिना॥
यह फ़नदकें नहीं मेरे क़ातिल के हाथ में।
होती है पोर पोर पै उसके फ़िदा हिना॥
खू़ने शफ़क़ में पंजए खु़र्शीद रश्क से।
डूबा ही था अगर वह न लेता छुपा हिना॥
गुरफ़े से हाथ खोल के और फिर लिया जो खींच।
बिजली सी कुछ चमक गई काफ़िर बला हिना॥
शब के खि़लाफ़ेवादा का जब बन सका न उज्ऱ।
नाचार फिर तो हंस दिया और दिखा दी हिना॥
कल मुझसे हंस के उस गुले ख़ूबी ने यूं कहा।
पांव में तू ही आज तो मेरे रचा हिना॥
वह छोटी प्यारी उंगलियां वह गोरे गोरे पांव।
हाथों में अपने ले, मैं लगाने लगा हिना॥
उस वक़्त जैसी निकलीं मेरी हसरतें “नज़ीर”।
इन लज़्ज़तों को दिल ही समझता है या हिना॥