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सूत की माला -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2
तुम बड़ा उसे आदर दिखलाने आए
तुम बड़ा उसे आदर दिखलाने आए
चंदन, कपूर की चिता रचाने आए,
सोचा, किस महारथी की अरथी आती,
सोचा, उसने किस रण में प्राण बिछाए?
लाओ वे फरसे, बरछे, बल्लम, भाले,
जो निर्दोषों के लोहू से हैं काले,
लाओ वे सब हथियार, छुरे, तलवारें,
जिनसे बेकस-मासूम औरतों, बच्चों,
मर्दों,के तुमने लाखों शीश उतारे,
लाओ बंदूकें जिनसे गिरें हजारों,
तब फिर दुखांत, दुर्दांत महाभारत के
इस भीष्म पितामह की हम चिता बनाएँ।
जिससे तुमने घर-घर में आग लगाई,
जिससे तुमने नगरों की पाँत जलाई,
लाओं वह लूकी सत्यानाशी, घाती,
तब हम अपने बापू की चिता जलाएँ।
वे जलें, बनी रह जाए फिरकेबंदी
वे जलें मगर हो आग न उसकी मंदी,
तो तुम सब जाओ, अपने को धिक्कारो,
गाँधी जी ने बेमतलब प्राण गँवाए।
भेद अतीत एक स्वर उठता
भेद अतीत एक स्वर उठता-
नैनं दहति पावक…
निकट, निकटतर, निकटतम
हुई चिता के अरथी, हाय,
बापू के जलने का भी अब, आँखें, देखो दृश्य दुसह।
भेद अतीत एक स्वर उठता-
नैनं दहति पावक…
चंदन की शैया के ऊपर
लेटी है मिट्टी निरुपाय
लो अब लपटों से अभिभूषित चिता दहकती है दह-दह।
भेद अतीत एक स्वर उठता-
नैनं दहति पावक…
अगणित भावों की झंझा में
खड़े देखते हैं हम असहाय
और किया भी क्या जाय,
क्षार-क्षार होती जाती है बापू की काया रह-रह।
भेद अतीत एक स्वर उठता-
नैनं दहति पावक…
भारत के सब प्रसिद्ध तीर्थों से, नगरों से
है आज आ रही माँग तपोमय गाँधी की
अंतिम धूनी से राख हमें भी चुटकी भर
मिल जाए जिससे उसे सराएँ ले जाकर
पावन करते
निकटस्थ नदी,
नद, सर, सागर।
अपने तन पर अधिकार समझते थे सब दिन
वे भारत की मिट्टी, भारत के पानी का,
जो लोग चाहते थे ले जाएँ राख आज,
है ठीक वही जसिको चाहे सारा समाज,
संबद्ध जगह जो हो गाँधी जी की मिट्टी से
साधना करे
रखने को उनकी
कीर्ति-लाज
हे देश-जाति के दीवानों के चूड़ामणि,
इस चिर यौवनमय, सुंदर, पावन वसुंधरा
की सेवा में मनुहार सहज करते करते
दी तुमने अपनी उमर गँवा, दी देह त्याग;
अब राख तुम्हारी आर्यभूमि की भरे माँग,
हो अमर तुम्हें खो
इस तपस्विनी
का सुहाग।
थैलियाँ समर्पित कीं सेवा के हित हजार
थैलियाँ समर्पित कीं सेवा के हित हजार,
श्रद्धांजलियाँ अर्पित कीं तुमको लाख बार,
गो तुम्हें न थी इनकी कोई आवश्यक्ता,
पुष्पांजलियाँ भी तुम्हें देश ने दीं अपार,
अब, हाय, तिलांजलि
देने की आई बारी।
तुम तील थे लेकिन झुकाते सदा ताड़,
तुम तिल थे लेकिन लिए ओट में थे पहाड़,
शंकर-पिनाक-सी रही तुम्हारी जमी धाक,
तुम हटी न तिल भर, गई दानवी शक्ति हार;
तिल एक तुम्हारे जीवन की
व्याख्या सारी।
तिल-तिल कर तुमने देश कीच से उठा लिया,
तिल-तिल निज को उसकी चिंता में गला दिया,
तुमने स्वदेश का तिलक किया आज़ादी से,
जीवन में क्या, मरकर भी ऐसा तलिस्म किया;
क़ातिल ने महिमा
और तुम्हारी विस्तारी।
तुम कटे मगर तिल भर भी सत्ता नहीं कटी,
तुम लुप्त हुए, तिल मात्र महत्ता नहीं घटी,
तुम देह नहीं थे, तुम थे भारत की आत्मा,
ज़ाहिर बातिल थी, बातिल ज़ाहिर बन प्रकटी,
तिल की अंजलि को आज
मिले तुम अधिकारी।
बापू की हत्या के चालिस दिन बाद गया
बापू की हत्या के चालिस दिन बाद गया
मैं दिल्ली को, देखने गया उस थल को भी
जिस पर बापू जी गोली खाकर सोख गए,
जो रँग उठा
उनके लोहू
की लाली से।
बिरला-घर के बाएँ को है है वह लॉन हरा,
प्रार्थना सभा जिस पर बापू की होती थी,
थी एक ओर छोटी सी वेदिका बनी,
जिस पर थे गहरे
लाल रंग के
फूल चढ़े।
उस हरे लॉन के बीच देख उन फूलों को
ऐसा लगता था जैसे बापू का लोहू
अब भी पृथ्वी
के ऊपर
ताज़ा ताज़ा है!
सुन पड़े धड़ाके तीन मुझे फिर गोली के
काँपने लगे पाँवों के नीचे की धरती,
फिर पीड़ा के स्वर में फूटा ‘हे राम’ शब्द,
चीरता हुआ विद्युत सा नभ के स्तर पर स्तर
कर ध्वनित-प्रतिध्वनित दिक्-दिगंत बार-बार
मेरे अंतर में पैठ मुझे सालने लगा!……
‘हे राम’ – खचित यह वही चौतरा, भाई
‘हे राम’ – खचित यह वही चौतरा, भाई,
जिस पर बापू ने अंतिम सेज बिछाई,
जिस पर लपटों के साथ लिपट वे सोए,
गलती की हमने
जो वह आग बुझाई।
पारसी अग्नि जो फारस से लाए,
हैं आज तलक वे उसे ज्वलंत बनाए,
जो आग चिता पर बापू के जगी थी
था उचित उसे
हम रहते सदा जगाए।
है हमको उनकी यादगार बनवानी,
सैकड़ों सुझाव देंगे पंडित-ज्ञानी,
लेकिन यदि हम वह ज्वाल लगाए रहते,
होती उनकी
सबसे उपयुक्त
निशानी।
तम के समक्ष वे ज्योति एक अविचल थे,
आँधी-पानी में पड़कर अडिग-अटल थे,
तप के ज्वाला के अंदर पल-पल जल-जल
वे स्वयं अग्नि-से
अकलुष थे,
निर्मल थे।
वह ज्वाला हमको उनकी याद दिलाती,
वह ज्वाला हमको उनका पथ दिखलाती,
वह ज्वाला भारत के घर-घर में जाती,
संदेश अग्निमय
जन-जन को
पहुँचाती।
पुश्तहापुश्त यह आग देखने आतीं,
इससे अतीत की सुधियाँ सजग बनातीं,
भारत के अमर तपस्वी की इस धूनी
से ले भभूत
अपने सिर-माथ
चढ़ातीं।
पर नहीं आग की बाकी यहाँ निशानी,
प्रह्लाद-होलिका फिर घटी कहानी,
बापू ज्वाला से निकल अछूते आए,
मिल गई राख-
मिट्टी में चिता
भवानी।
अब तक दुहरातीं मस्जिद की मिनारें,
अब तक दुहरातीं घर घर की दीवारें,
दुहराती पेड़ों की हर तरु कतारें,
दुहराते दरिया के जल-कूल-कगारे,
चप्पे-चप्पे इस राजघाट के रटते
जो लोग यहाँ थे चिता-शाम के नारे-
हो गए आज बापू अमर हमारे,
हो गए आज बापू अमर हमारे!_