सुबह हो गई है-त्रिकाल संध्या-भवानी प्रसाद मिश्र-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Bhawani Prasad Mishra
सुबह हो गई है
मैं कह रहा हूँ सुबह हो गई है
मगर क्या हो गया है तुम्हें कि तुम सुनते नहीं हो
अपनी दरिद्र लालटेनें बार-बार उकसाते हुए
मुस्काते चल रहे हो
मानो क्षितिज पर सूरज नहीं तुम जल रहे हो
और प्रकाश लोगों को तुमसे मिल रहा है
यह तो तालाब का कमल है
वह तुम्हारे हाथ की क्षुद्र लालटेन से खिल रहा है
बदतमीज़ी बन्द करो
लालटेनें मन्द करो
बल्कि बुझा दो इन्हें एकबारगी
शाम तक लालटेनों में मत फँसाए रखो अपने हाथ
बल्कि उनसे कुछ गढ़ो हमारे साथ-साथ
हम जिन्हें सुबह होने की सुबह होने से पहले
खबर लग जाती है
हम जिनकी आत्मा नसीमे-सहर की आहट से
रात के तीसरे पहर जग जाती है
हम कहते हैं सुबह हो गई है।
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