सारंग से निकला वाण, दिगविजयी-कविता -दीपक सिंह-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Deepak Singh
सारंग से निकला वाण, दिगविजयी
घोर प्रत्यंचा धारी हे दिगविजयी, दिगविजयी।
तरकश से जब बाण चले, हिमखण्ड चीरता जाये
लाखों दुर्योधन हों चाहे, साहस रिसता जाये
हे भूखण्ड के स्वामी, आपदा प्रबंधन के नियंत्रक
भरूधर अब आस लगाये
हे दिगविजयी हे दिगविजयी
घोर प्रत्यंचा धारी हे दिगविजयी, दिगविजयी।
भ्रष्ट कुचित्र, दुराचारी को, चीरता जाये
निति नियम का पालन न करते, उन्हे ढूंढ़ता जाये
वो काल सर्प की भाँति चले, विनाश डगर पर बढ़े ही बढ़े
ज्ञानी भी अब आस लगाये
हे दिगविजयी, दिगविजयी
घोर प्रत्यंचा धारी, हे दिगविजयी, दिगविजयी।
क्षुब्धहृदय, रूष्ट दृगो में आस छोड़ता जाये,
ज्ञान की चमकीली रेखा में ग्रन्थ ढूंढ़ता जाये
वो नयी सृष्टि रचने को, सतजुग की तैयारी में,
सत्यता सजने को तैयार खड़ी, हे दिगविजयी दिगविजयी
घोर प्रत्यंचा धारी हे दिगविजयी, दिगविजयी।
अपने आश्रित जीवन में, प्रकाश विखेरता जाये
निःस्पंद लेकिन ईश्वरित हृदय में, रास छोड़ता जाये
वो घमंडित सागर मोड़े, अपने वेगों की धार से
सारी रचना अब आस लगाये
हे दिगविजयी, दिगविजयी।
सारंग से निकला वाण, दिगविजयी
घोर प्रत्यंचा धारी हे दिगविजयी हे दिगविजयी।