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समय की पगडंडियों पर -गीत -त्रिलोक सिंह ठकुरेला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Trilok Singh Thakurela Part 5
स्वप्न सतरंगी
शुभे, जीवन में तुम्हीं ने स्वप्न सतरंगी सजाये ।
तुम नयी आशा जगातीं
जिंदगी में भोर सी,
भर रहीं उत्साह से हरदम
मुझे नद-शोर सी,
सुर तुम्हारे जब मिले, मैंने मिलन के गीत गाये ।
जब कभी घिरती निशा
धर चाँदनी का रूप आतीं,
चीर कर सीना तिमिर का
शोभने, तुम पथ दिखातीं,
बस तुम्हारे ही इशारे मंजिलों की ओर लाये ।
हर घड़ी जीवन सफर में
पवन शीतल बन बही हो,
इस वृहद संसार में
मेरा सहारा तुम रही हो,
रंग जीवन के विविध, पाकर तुम्हारा साथ, भाये।
राह के कंकट हटाकर
पुष्प तुमने ही बिछाये,
देखकर स्मित तुम्हें ही
होंठ मेरे मुस्कराये,
धूप सी इस जिंदगी में, तुम्हीं से घन सघन छाये।
मिलकर पढ़ें वे मंत्र
आइये, मिलकर पढ़ें वे मंत्र ।
जो जगाएं प्यार मन में,
घोल दें खुशबू पवन में,
खुशी भर दे सर्वजन में,
कहीं भी जीवन न हो ज्यों यंत्र।
स्वर्ग सा हर गाँव घर हो,
सम्पदा-पूरित शहर हो,
किसी को किंचित न डर हो,
हर तरह मजबूत हो हर तंत्र ।
छंद सुख के, गुनगुनायें,
स्वप्न को साकार पायें,
आइये, वह जग बनायें,
हो जहाँ सम्मानमय जनतंत्र ।।
क्या इतना प्यारा जग लगता
क्या इतना प्यारा जग लगता, तुम जीनव में रंग न भरती ?
क्या जीवन मधुमय हो पाता, यदि तुम मुझको प्यार न करतीं ?
प्रिये, तुम्हारी ही मुस्कानें देख धड़कता है मेरा दिल,
बिना तुम्हारे कैसा जीवन, प्रिये, सोचना ही है मुश्किल,
साथ तुम्हारे ही भाती है, मुझको इस जग की हर महफिल,
जीवन और सार्थक लगता, जब तुम सजतीं और संवरती ।
क्या इतना प्यारा जग लगता, तुम जीवन में रंग न भरतीं ??
कुछ भी पास रहे न रहे, पर रहे प्रेम-निधि साथ तुम्हारी,
हँसते नयन, मधुर मुस्कानें सुख पहुचायें बारी बारी,
तेरे अपनेपन पर मुग्धे, मेरा यह जीवन बलिहारी,
तुम तन मन से हुईं समर्पित, इससे अधिक और क्या करतीं ?
क्या इतना प्यारा जग लगता, तुम जीवन में रंग न भरतीं ??
तुम से चैन, तुम्हीं से रस हैं और तुम्हीं से हँसी ठिठोली,
शहद घोलती नित कानों में, रस से भरी तुम्हारी बोली,
लगते खेल सभी ही प्यारे, बनी जिस घड़ी तुम हमजोली,
मैं हर समय तुम्हीं से उपकृत, तुम से ही सुख-बूंदें झरतीं ।
क्या इतना प्यारा जग लगता, तुम जीवन में रंग न भरतीं ??
जो अनुभूति हुई है मुझको, कैसे मैं उसको इजहारूँ,
कैसे तुमको सुख पहुचाऊँ, तुम पर कितने मोती बारूँ,
दिल तो हार चुका पहले ही, शेष बचा क्या जिसको हारूँ,
तुम अमूल्य निधि हो परिणीते, जग की सब निधि कहाँ ठहरतीं ?
क्या इतना प्यारा जग लगता, तुम जीवन में रंग न भरतीं ??
मधुर मिलन पर
सोच रहा हूँ मधुर मिलन पर क्या उपहार दिलाऊँ मैं ?
प्रिये, भरूँ फूलों से आँचल या तारे ले आऊँ मैं ?
अखिल विश्व में क्या है ऐसा
जो सुख से भर दे तुमको,
सोच रहा हूँ कुछ ऐसा हूँ
प्रिये, मुग्ध कर दे तुमको,
करूँ भव्य आयोजन कोई, व्यंजन मधुर खिलाऊ मैं ?
मोती, माणिक, सोना, चाँदी
सब के ढेर लगा दूँ क्या,
जड़े हुए हों चाँद-सितारे
मैं ऐसे पट ला दूँ क्या,
क्या उपयुक्त रहेगा आखिर ? समझ नहीं कुछ पाऊँ मैं।
स्वप्न लोक में नीलगगन की
सैर कराने ले जाऊँ,
सुख की नन्हीं नन्हीं बूंदें
प्रिये, तुम्हीं पर बरसाऊँ,
हाथों में ले हाथ तुम्हारा, झूम खुशी में गाऊँ मैं ?
सब कुछ ही नश्वर है जग में
क्या कुछ सुख दे पायेगा,
प्रिये, प्रेम ही युगों युगों तक
हर दम साथ निभायेगा,
बसूँ तुम्हारी साँस साँस में, प्राणों में बस जाऊँ मैं।
प्रिये, समूचा जग नश्वर है
प्रिये, समूचा जग नश्वर है, एक दिन हम भी नहीं रहेंगे।
यायावर बन कर इस जग से
तुम चल दोगी, मैं चल दूंगा,
नहीं सुनोगी गीत किसी दिन
न मैं किसी दिन गीत कहूँगा,
जग में रहें न रहें प्रिये हम, गीत हवा में नित्य बहेंगे।
किसी रूप में रहें सुरक्षित
किन्तु रहेंगी अपनी बातें,
याद रखेंगे चाँद सितारे
अपने मिलन-दिवस, मधु-रातें,
समझ न पाये कोई फिर भी, प्रेम-कथा अनवरत कहेंगे।
शायद मेघ बने हम गरजें
बरस जगत के ताप मिटायें,
या फिर खिलें किसी उपवन में
सारे जग को हम महकायें,
स्मित करें किन्हीं होंठों को, हम काँटों के घाव सहेंगे।
केवल तन के मिट जाने से
सब कुछ नष्ट नहीं हो जाता,
महाप्रलय न मिटा पायेगी
प्रिये, प्रेम का अपना नाता,
यह तो मजबूरी है अपनी, अपनी अपनी राह गहेंगे।
पथ निहारता रहता पीपल
पथ निहारता रहता पीपल,
किन्तु न मैं उस तक जा पाता।
इस जीवन की भूल-भुलैया
मुझको अपने में उलझाती,
समय-डाकिया दे जाता है
अब भी स्मृतियों की पाती,
मैं सुदूर, पर कभी न भूला
पीपल से वह प्यारा नाता ।
वह स्निग्ध पात पीपल के
वह सुमधुर संगीत सुहाना,
नटखट बचपन बुनता रहता
मन-भावन सा ताना-बाना,
जब मन होता तभी डाल पर
चढ़ जाता, खुश होकर गाता।
गुल्ली-डंडा, चोर-सिपाही,
कितने खेल छाँह में खेले,
स्वप्न हुए वे दिन सोने से
आते रहते याद अकेले,
मैं कल्पना के विमान में
कभी कभी उन तक हो आता।
उपलब्धियों के शिखर
बहुत कुछ खोकर मिले
उपलब्धियों के ये शिखर ।
गाँव छूटा
परिजनों से दूर
ले आई डगर,
खो गयीं अमराइयाँ
परिहास की वे दोपहर,
मार्ग में आँखें बिछाए
है विकल सा वृद्ध घर ।
हर तरफ
मुस्कान फीकी
औपचारिकता मिली,
धरा बदली
कली मन की
है अभी तक अधखिली,
कभी स्मृतियाँ जगातीं
बात करतीं रात भर ।
भावनाओं की गली में
मौन के
पहरे लगे हैं,
भोर सी बातें नहीं
बस स्वार्थ के ही
रतजगे हैं,
चंद सिक्के बहुत भारी
जिंदगी के गीत पर ।
नये वर्ष में
नये वर्ष में
नया नहीं कुछ
सभी पुराना है ।
महँगा हुआ और भी आटा
दाल और उछली,
मँहगाई से लड़े मगर
कब अपनी दाल गली,
सूदखोर का
हर दिन घर पर
आना जाना है ।
सोचा था, इस बढ़ी दिहाड़ी से
कुछ पाएँगे,
थैले में कुछ खुशियाँ भरकर
घर में लाएँगे,
काम नहीं मिलने का
हर दिन
नया बहाना है ।
फिर भी उम्मीदों का दामन
कभी न छोड़ेंगे,
बड़े यतन से
सुख का टुकड़ा टुकड़ा जोड़ेंगे,
आखिर अपने पास यही अनमोल खजाना है
बीत गए युग दीप जलाते
बीत गए युग दीप जलाते
कब तक दीप जलायें।
विजय-पर्व के भ्रम में जीकर
बीती उम्र हमारी,
मिलती रही हमें पग-पग पर
घुटन और लाचारी,
इन्तजार है, अपने द्वारे
सुख की आहट पायें।
आशाओं के दीप जलाये
घर-आँगन-चौबारे,
अंधकार की सत्ता जीती
हम सदैव ही हारे
जीतेंगे हम, शर्त एक है
स्वयं दीप बन जायें।
मन की काली घनी अमावस
होगी ख़त्म किसी दिन,
उम्मीदों की चिड़ियाँ
आँगन में गायेंगी पल-छिन,
आओ, स्वागत करें भोर का
मंगल-ध्वनियाँ गायें।
पिता
पिता ! आप विस्तृत नभ जैसे,
मैं निःशब्द भला क्या बोलूँ ।
देख मेरे जीवन में आतप
बने सघन मेघों की छाया,
ढाढ़स के फूलों से जब तब
मेरे मन का बाग सजाया,
यही चाहते रहे उम्र भर
मैं सुख के सपनों में डोलूँ ।
कभी सख्त चट्टान सरीखे
कभी प्रेम की प्यारी मूरत,
कल्पवृक्ष मेरे जीवन के !
पूरी की हर एक जरूरत,
देते रहे अपरमित मुझको
सरल नहीं मैं उऋण हो लूँ ।
स्मृतियों की पावन भू पर
पिता, आपका अभिनन्दन है,
शत शत नमन, वन्दना शत-शत
श्रद्धा से नत यह जीवन है,
यादों की मिश्री ले बैठा
मैं मन में जीवन भर घोलूँ।
मन मन्दिर
मैं अपना मन मन्दिर कर लूँ
उस मन्दिर में तुम्हें बिठाऊँ।
वंदन करता रहूँ रात-दिन,
नित गुणगान तुम्हारे गाऊँ।।
तुमसे प्यार मिला जब मुझको
जीवन का मतलब पहचाना;
देवि, मेरे मन के आँगन में,
तुम से सुख बरसा मनमाना;
हैं अनगिन उपकार तुम्हारे,
मैं किस तरह उऋण हो पाऊँ।
मैं अनगढ़ पत्थर जैसा था
तुमने कर-कर जतन सँवारा;
जी चाहे न्यौछावर कर दूँ,
मैं तुम पर ये जग ही सारा;
मेरा जीवन सिर्फ तुम्हारा,
बार-बार बलिहारी जाऊँ।
कुछ भी नहीं जगत में जिससे
प्यार कभी भी तोला जाये;
किस मतलब की प्यारी निधियाँ,
अगर प्रेम निधि कोई पाये;
बिना प्रेम के व्यर्थ जिन्दगी,
मन कहता सब को समझाऊँ।
खिलता हुआ कनेर
बहुधा मुझ से बातें करता
खिलता हुआ कनेर,
अभ्यागत बनने वाले हैं
शुभ दिन देर सवेर,
आग उगलते दिवस जेठ के
सदा नहीं रहने,
झंझाओं के गर्म थपेड़े
सदा नहीं सहने,
आ जायेंगे दिन असाढ़ के
मन के पपीहा टेर,
आशा की पुरवाई होगी
सब के आँगन में,
सुख की नव-कोंपल फूटेंगी
सब के ही मन में,
भावों के मोती बरसेंगे
लग जायेंगे ढेर।
अमराई आमंत्रण देती
अमराई आमंत्रण देती, आओ बैठे छाँव तले ।
गीत बयार गुनगुनाती है
घोल रही है रस कोयल,
झूम रही है पत्ती-पत्ती
जैसे बौराया हर पल
भाग-दौड़ वाले जीवन में, फुर्सत के पल चार भले ।
मौन रहूँ मैं, मौन रहो तुम
नयनों को सब कहने दो,
रहने दो अब सारी बातें
मनुहारें भी रहने दो,
देखो उधर मुग्ध हैं कितने, लता वृक्ष जो मिले गले ।
ढलता है सूरज ढल जाए
रजनी आए आने दो,
होने दो सारा जग विस्मृत
सपनों में खो जाने दो,
घिरे जिस घड़ी भी अंधियारी, मन का अंतरदीप जले।
कली फूल बनने को आतुर
फूल सुगन्ध लुटाने को,
इस अमूल्य निधि के आगे
अब शेष रहा क्या पाने को,
मोती माणिक किसे चाहिए, दिल के अन्दर प्यार पले।
गीत हमारे
रंग भरेंगे
जन जन मन में
गीत हमारे।
नहीं बीतना
जीवन पल भर
काँव काँव में,
फिर लौटेगा
समय चहकता
गाँव गाँव में,
नहीं रहेंगे
बहुत देर तक
ये अँधियारे।
हरसिंगार
पल्लवित होकर
सुख बाँटेंगे,
शब्द-समूह
दलित दुखियों के
दु:ख छाँटेंगे,
दस्तक देंगे
सबके घर पर
वैभव सारे।