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सप्तपर्णा -महादेवी वर्मा-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Mahadevi Verma Saptparna Part 2
ज्योतिष्मती
आ रही उषा ज्योति:स्मित !
प्रज्जवलित अग्नि है लहराती आभा सित ।
सब द्विपद चतुष्पद प्राणि जगत है चंचल,
सविता ने सब को दिया कर्म का सम्बल,
नव रश्मिमाल से भूमण्डल-परिवेषित !
आ रही उषा ज्योति:स्मित !
जो ऋत् की पालक मानव-युग-निर्मायक,
जो विगत उषायों के समान सुखदायक,
भावी अरुणायों में प्रथमा उदृभासित !
आ रही उषा ज्योति:स्मित !
आलोकदुकूलिनि स्वर्ग-कन्याका नूतन,
पूर्वायन-शोभी उदित हुई उज्ज्वलतन,
व्रतवती निरन्तर दिग् दिगंत से परिचित !
आ रही उषा ज्योति:स्मित !
उसके हित कोयी उन्नत है न अवर है,
आलोकदान में निज है और न पर है,
विस्तृत उज्ज्वलता सब की, सब से परिचित !
आ रही उषा ज्योति:स्मित !
रक्ताभ श्वेत अश्वों को जोते रथ में,
प्राची की तन्वी आई नभ के पथ में,
गृह गृह पावक, पग पग किरणों से रंजित !
आ रही उषा ज्योति:स्मित !
प्रश्न
पूछ रहा हूँ आज स्वयं अपने से, उर में
हो सकता क्या एक कभी उससे अन्तर में?
अवहेला को भूल कभी वह स्नेह-तरल मन
कर लेगा स्वीकार गीत की भेंट अकिंचन ?
किस दिन मैं उज्जवल प्रसन्नचित्त कल्मष खोकर,
मिल पाऊँ आनन्दरूप से सम्मुख होकर ?
दर्शनयाचक मैं, कह दे क्या अवगुण मेरे,
जिनके कारण आज मुझे यह बन्धन घेरे ?
जो ज्ञानी हैं, पूछ चुका उनसे बहुतेरा,
सबका उत्तर एक वही : प्रभु रुठा तेरा !
अविनय ऐसा कौन आज तू भी जिसके हित,
स्नेह-सखा को किया चाहता इतना दण्डित ?
हे दुर्लभ ! दे बता और तब दोषविगत मैं,
पहुंचूँ तुझ तक त्वरित, भक्ति से नमित विनत मैं ।
(ऋग्वेद)
अभय
दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।
मैं अपने निर्दिष्ट
लक्ष्य तक पहुंचूँ निश्चित,
यह पृथ्वी आकाश,
सदा शिव हों मेरे हित;
हों प्रतिकूल न ये प्रदिशाएँ,
द्वेष भाव का मुझमें क्षय हो ।
दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।
प्राप्त हमें हो इन्द्र !
तुम्हारा लोक असीमित,
जिसमें हो कल्याण,
ज्योति से जो आच्छादित;
स्थिर विशाल भुज की छाया में,
हमें भीति से मिली विजय हो ।
दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।
भीति रहित यह अन्तरिक्ष,
मुझ को ही घेरे,
धरती दिव कल्याण-
विधायक हो नित मेरे;
ऊपर-नीचे, आगे-पीछे,
कहीं नहीं मुझको संशय हो ।
दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।
नहीं मित्र से भीत,
शत्रु से हो निर्भय मन,
ज्ञात और अज्ञात,
न कोई भय का कारण;
शंका रहित रात मेरी हो,
दिन मुझको कल्याण निलय हो ।
दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।
जिन कवचों से दिव्य-
वपुष, हो गये देवगण,
स्वयं इन्द्र करता है,
जिनका तेज-संगठन;
कर वर्म वे ही आच्छादित,
मेरे लिए सभी शममय हो !
दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।
धरती मेरा कवच,
कवच है नभ मेरे हित,
दिन भी मेरा कवच
कवच रवि है उद्भासित;
शंकायें छू मुझे न पायें,
विश्व कवच मेरा अक्षय हो।
दिशि-दिशि मेरे लिए अभय हो ।
(अथर्ववेद)
स्नान हित पहुंचे
…..
‘पाद ॰ बद्ध, समान अक्षर
तन्त्र – गेय समर्थ,
श्लोक यह, शोकार्त उर का
हो न सकता व्यर्थ !’
मुनि वचन सुन शिष्य ने
उसको किया कंठस्थ,
देख गुरु का खिन्न मन भी
हो गया प्रकृतिस्थ !
चले आश्रम ओर कर विधि-,
विहित मज्जनचार,
मार्ग में करते उसी,
संकल्प का सुविचार !
भरद्वाज प्रशिष्य ले कर
कलश जल से पूर्ण,
पंथ में गुरु-अनुगमन,
करने लगा वह तूर्ण !
धर्मविद् पहुँचे निजाश्रम,
विनत शिष्य समेत,
ध्यान युत, सबसे कहा
संकल्प का संकेत !
अन्य वटु विस्मित प्रहर्षित
हो गए यह जान,
श्लोक का फिर लगे
करने मधुर स्वर गान !
चार चरण समान अक्षर-
रचित गुरु का गीत,
अन्यथा होगा न, दुख
जो बना श्लोक पुनीत !
पूत आत्मा गुरु हुए
संकल्प में संन्यस्त,
‘श्लोक छन्दायित करूंगा
राम – चरित समस्त ।’
बुद्ध-जन्म
1.
दीप्तिमय शोभित हुआ वह
धीर ज्योतिर्वेश,
भूमि पर उतरा यथा
बालार्क ले परिवेष ।
चकित करके दृष्टि को
उसने लिया यों खींच,
केन्द्र ज्यों बनता नयन का
इन्दु नभ के बीच ।
दिव्य अंगों से बरसती
स्वर्णदीप्ति अनन्त,
हो उठे भास्वर उसी से
दूर दूर दिगन्त ।
सप्त ऋषि मंडल सदृश वह
पुंज पुंज प्रकाश,
धीर दृढ़ ऋजु चरण से
कर सप्त पग का न्यास,
अभय सिंह समान उसने
फिर चतुर्दिक देख,
धीर उद्घोषित किया निज
सत्य का आलेख-
‘बोध हित है जन्म
भव – कल्याण मेरा लक्ष्य,
लोकहित अन्तिम हुआ
है जन्म यह प्रत्यक्ष !’
2.
गिरिराजों से कीलित धरती
हुई तरी सी झंझा-कम्पित,
नभ निरभ्र से वृष्टि हुई नव
पंकज – संकुल चन्दन – सुरभित ।
दिव्य वसन भू पर फैलाता
सुखद मनोरम बहा समीरण,
रवि ने अति भास्वरता पाई
सौम्य अग्नि जल उठी अनीन्धन ।
विहग और मृगदल दोनों ने
रोक दिया कलरव कोलाहल,
शान्त तरंगों में बहता था
शान्त भाव से सरिता का जल !,
शान्त दिशायें स्वच्छ हो गईं
नील गगन था स्वच्छ मेघ बिन,
पवन-लहरियों पर तिरता था
दिव्य लोक के तूर्यों का स्वन ।
-बुद्धचरित
वसन्त
देव ! देखो मंजरित,
सहकार का तरु
गन्ध – मधु – सुरभित,
खिला जिसका सुमन – दल,
बैठ जिसमें मधु-
गिरा में बोलता यह
लग रहा है हेम–
पंजर – बद्ध कोकिल-
रक्त पल्लव युक्त,
आज अशोक देखो,
प्रेमियों के हित
सदा जो विरहवर्द्धन,
जान पड़ता दग्ध-
ज्वाला से विकल हो,
कर रहे उसमें भ्रमर-
के वृन्द कूजन ।
आज उज्जवल तिलक –
द्रुम को भेंट कर यह
पीतवर्ण रसाल-
शाखा यों सुशोभित,
शुभ्र वेशी पुरुष के
ज्यों संग नारी
पीत केसर – अंग-
रागों से प्रसाधित ।
सद्य ही जिसको
निचोड़ा राग के हित
यह अलक्तक कान्ति–
शोभा फुल्ल कुरवक,
नारियों की नख-
प्रभा से चकित होकर
आज लज्जा – भार
से मानो रहा झुक !
तीर पर जिसके उगे
हैं सिन्धुवारक
देख कर इस पुष्करिणि
को हो रहा भ्रम
धवल अंशक ओढ़ कर
मानो यहाँ हो,
अंगना लेटी हुई
कोई मनोरम ।
देव ! आज वसन्त
में हो राग – उन्मद
बोलता है पिक सुनो
टुक यह मधुर स्वर,
और प्रतिध्वनि सी
उसी की जान पड़ता,
दूसरे पिक का ‘कुहू’
में दिया उत्तर ।
मोह से उन्मत्तचित
प्रमदा जनों ने
हाव – भावों के चलाये
अस्त्र अनगिन,
मृत्यु निश्चित सोचता
वह धीर संयत,
हो सका न प्रसन्न
और न खिन्न उन्मन ।
(बुद्धचरित)