श्री मद्धर्मधुरंधर पंडा- शरणार्थी अज्ञेय- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय”-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Sachchidananda Hirananda Vatsyayan Agyeya,
#1.
धरती थर्रायी, पूरब में सहसा उठा बवंडर
महाकाल का थप्पड़-सा जा पड़ा
चाँदपुर-नोआखाली-फेनी-चट्टग्राम-त्रिपुरा में
स्तब्ध रह गया लोक
सुना हिंसा का दैत्य, नशे में धुत्त, रौंद कर चला गया है
जाति द्वेष की दीमक-खायी पोली मिट्टी
उठा वहाँ चीत्कार असंख्य दीनों पददलितों का
अपमानिता धर्षिता नारी का सहस्रमुख
फटा हुआ सुर फटे हृदय की आह
गूँज गयी-थर्राया सहम गया आकाश
फटी आँखों की भट्टी में जो खून
उतर आया था वह जल गया।
#2.
श्री मद्धर्मधुरंधर पंडा
के कानों पर जूँ तब रेंगी,
तनिक सरक कर थुलथुल
माया को आसन पर और
व्यवस्था से पधराकर
बोले-‘आये हो, हाँ, आओ
बेचारी दुखियारी!
मंगल करनी सब दुख हरनी
माँ मरजादा फतवा देंगी।
‘सदा द्रौपदी की लज्जा को
ढँका कृष्णा ने चीर बढ़ा कर
धर्म हमारा है करुणाकर
हम न करेंगे बहिष्कार
म्लेच्छ-धर्षिता का भी, चाहे
उस लांछन की छाप अमिट है।
साथ न बैठे-हाथ हमारे वह पाएगी
सदा दया का टुक्कड़-‘ सहसा जूँ रुक गयी।
तनिक सरकी थी-नारिवर्ग का घर्षण
(तीन, तीस या तीन हज़ार-आँकड़ों का जीवन में उतना मूल्य नहीं है-)
इतना ही बस था समर्थ। श्री पंडा जागे
यह भी उन की अनुकम्पा थी और नहीं क्या
अपने आसन से डिग जाते?
लुट जाती मरजाद सनातन?
इसीलिए जूँ रुकी। सो गये
श्री मद्धर्मधुरंधर पंडा।
मानवता को लगीं घोंटने फिर
गुंजलकें मरु रूढि़ की।
काशी-इलाहाबाद (रेल में), 6 नवम्बर, 1947
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