शिलुका-कविता-पद्मा सचदेव-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Padma Sachdev
देह जलाकर मैं अपनी
लौ दूं अंधेरे को
जलती-जलती हंस पडूं
जलती ही जीती हूं मैं
जैसे बटोत के जंगल में
जल रही शिलुका कोई
देवदारों की धिया (बेटी)
चीड़ों की मुझे आशीष
अंधेरे की मैं रोशनी…
जंगल का हूं मोह मैं
जो तू है वही हूं मैं
अपनी मृत्यु पर रोई
यह बस्ती टोह ली
चक्की में डालकर
बांह पीसती हूं मैं
लोक पागल हो गया
तुझे कहां ढूंढता रहा
तू तो मेरे पास था
तभी तो जीती हूं मैं
मैं एक किताब हूं
लिखा हुआ हिसाब हूं
मैं पर्णकुटिया तेरी
लाज
तुम रखना मेरी
रमिया रहीमन हूं मैं
कुछ तो यक़ीनन हूं मैं!
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