post Contents ( Hindi.Shayri.Page)
- 1 ग़ज़ल ‘मीर’ की कब पढ़ाई नहीं
- 2 क्या मैं भी परेशानी-ए-ख़ातिर से क़रीं था
- 3 कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ ‘मीर’ नज़र आई
- 4 कहते हैं बहार आई गुल फूल निकलते हैं
- 5 इश्क़ में ज़िल्लत हुई ख़िफ़्फ़त हुई तोहमत हुई
- 6 आम हुक्म-ए-शराब करता हूँ
- 7 गुल ब बुलबुल बहार में देखा
- 8 ज़ख्म झेले दाग़ भी खाए बोहत
- 9 कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
- 10 अए हम-सफ़र न आब्ले
- 11 उम्र भर हम रहे शराबी से
- 12 अंदोह से हुई न रिहाई तमाम शब
- 13 हिन्दी कविता- Hindi.Shayri.Page
शायरी-मीर तक़ी मीर-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Mir Taqi Mir Poetry/Shayari part 9
ग़ज़ल ‘मीर’ की कब पढ़ाई नहीं
ग़ज़ल ‘मीर’ की कब पढ़ाई नहीं
कि हालत मुझे ग़श की आई नहीं
ज़बाँ से हमारी है सय्याद ख़ुश
हमें अब उम्मीद-ए-रिहाई नहीं
किताबत गई कब कि उस शोख़ ने
बना उस की गड्डी उड़ाई नहीं
नसीम आई मेरे क़फ़स में अबस
गुलिस्ताँ से दो फूल लाई नहीं
मिरी दिल-लगी उस के रू से ही है
गुल-ए-तर से कुछ आश्नाई नहीं
नविश्ते की ख़ूबी लिखी कब गई
किताबत भी एक अब तक आई नहीं
जुदा रहते बरसों हुए क्यूँकि ये
किनाया नहीं बे-अदाई नहीं
गिला हिज्र का सुन के कहने लगा
हमारे तुम्हारे जुदाई नहीं
सियह-तालई मेरी ज़ाहिर है अब
नहीं शब कि उस से लड़ाई नहीं
क्या मैं भी परेशानी-ए-ख़ातिर से क़रीं था
क्या मैं भी परेशानी-ए-ख़ातिर से क़रीं था
आँखें तो कहीं थीं दिल-ए-ग़म-दीदा कहीं था
किस रात नज़र की है सू-ए-चश्मक-ए-अंजुम
आँखों के तले अपने तो वो माह-जबीं था
आया तो सही वो कोई दम के लिए लेकिन
होंठों पे मिरे जब नफ़स-ए-बाज़-पुसीं था
अब कोफ़्त से हिज्राँ की जहाँ तन पे रखा हाथ
जो दर्द ओ अलम था सो कहे तू कि वहीं था
जाना नहीं कुछ जुज़ ग़ज़ल आ कर के जहाँ में
कल मेरे तसर्रुफ़ में यही क़ितआ ज़मीं था
नाम आज कोई याँ नहीं लेता है उन्हों का
जिन लोगों के कल मुल्क ये सब ज़ेर-ए-नगीं था
मस्जिद में इमाम आज हुआ आ के वहाँ से
कल तक तो यही ‘मीर’ ख़राबात-नशीं था
कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ ‘मीर’ नज़र आई
कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ ‘मीर’ नज़र आई
शायद कि बहार आई ज़ंजीर नज़र आई
दिल्ली के न थे कूचे औराक़-ए-मुसव्वर थे
जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई
मग़रूर बहुत थे हम आँसू की सरायत पर
सो सुब्ह के होने को तासीर नज़र आई
गुल-बार करे हैगा असबाब-ए-सफ़र शायद
ग़ुंचे की तरह बुलबुल दिल-गीर नज़र आई
उस की तो दिल-आज़ारी बे-हेच ही थी यारो
कुछ तुम को हमारी भी तक़्सीर नज़र आई
कहते हैं बहार आई गुल फूल निकलते हैं
कहते हैं बहार आई गुल फूल निकलते हैं
हम कुंज-ए-क़फ़स में हैं दिल सीनों में जलते हैं
अब एक सी बेहोशी रहती नहीं है हम को
कुछ दिल भी सँभलते हैं पर देर सँभलते हैं
वो तो नहीं इक छींटा रोने का हुआ गाहे
अब दीदा-ए-तर अक्सर दरिया से उबलते हैं
उन पाँव को आँखों से हम मलते रहे जैसा
अफ़्सोस से हाथों को अब वैसा ही मलते हैं
क्या कहिए कि आज़ा सब पानी हुए हैं अपने
हम आतिश-ए-हिज्राँ में यूँ ही पड़े गलते हैं
करते हैं सिफ़त जब हम लाल-ए-लब-ए-जानाँ की
तब कोई हमें देखे क्या लाल उगलते हैं
गुल फूल से भी अपने दिल तो नहीं लगते टुक
जी लोगों के बेजानाँ किस तौर बहलते हैं
हैं नर्म सनम गो न कहने के तईं वर्ना
पत्थर हैं उन्हों के दिल काहे को पिघलते हैं
ऐ गर्म-ए-सफ़र याराँ जो है सो सर-ए-रह है
जो रह सको रह जाओ अब ‘मीर’ भी चलते हैं
इश्क़ में ज़िल्लत हुई ख़िफ़्फ़त हुई तोहमत हुई
इश्क़ में ज़िल्लत हुई ख़िफ़्फ़त हुई तोहमत हुई
आख़िर आख़िर जान दी यारों ने ये सोहबत हुई
अक्स उस बे-दीद का तो मुत्तसिल पड़ता था सुब्ह
दिन चढ़े क्या जानूँ आईने की क्या सूरत हुई
लौह-ए-सीना पर मिरी सौ नेज़ा-ए-ख़त्ती लगे
ख़स्तगी इस दिल-शिकस्ता की इसी बाबत हुई
खोलते ही आँखें फिर याँ मूँदनी हम को पड़ीं
दीद क्या कोई करे वो किस क़दर मोहलत हुई
पाँव मेरा कल्बा-ए-अहज़ाँ में अब रहता नहीं
रफ़्ता रफ़्ता उस तरफ़ जाने की मुझ को लत हुई
मर गया आवारा हो कर मैं तो जैसे गर्द-बाद
पर जिसे ये वाक़िआ पहुँचा उसे वहशत हुई
शाद ओ ख़ुश-ताले कोई होगा किसू को चाह कर
मैं तो कुल्फ़त में रहा जब से मुझे उल्फ़त हुई
दिल का जाना आज कल ताज़ा हुआ हो तो कहूँ
गुज़रे उस भी सानेहे को हम-नशीं मुद्दत हुई
शौक़-ए-दिल हम ना-तवानों का लिखा जाता है कब
अब तलक आप ही पहुँचने की अगर ताक़त हुई
क्या कफ़-ए-दस्त एक मैदाँ था बयाबाँ इश्क़ का
जान से जब उस में गुज़रे तब हमें राहत हुई
यूँ तो हम आजिज़-तरीन-ए-ख़ल्क़-ए-आलम हैं वले
देखियो क़ुदरत ख़ुदा की गर हमें क़ुदरत हुई
गोश ज़द चट-पट ही मरना इश्क़ में अपने हुआ
किस को इस बीमारी-ए-जाँ-काह से फ़ुर्सत हुई
बे-ज़बाँ जो कहते हैं मुझ को सो चुप रह जाएँगे
मारके में हश्र के गर बात की रुख़्सत हुई
हम न कहते थे कि नक़्श उस का नहीं नक़्क़ाश सहल
चाँद सारा लग गया तब नीम-रुख़ सूरत हुई
इस ग़ज़ल पर शाम से तो सूफ़ियों को वज्द था
फिर नहीं मालूम कुछ मज्लिस की क्या हालत हुई
कम किसू को ‘मीर’ की मय्यत की हाथ आई नमाज़
नाश पर उस बे-सर-ओ-पा की बला कसरत हुई
आम हुक्म-ए-शराब करता हूँ
आम हुक्म-ए-शराब करता हूँ
मोहतसिब को कबाब करता हूँ
टुक तो रह ऐ बिना-ए-हस्ती तू
तुझ को कैसा ख़राब करता हूँ
बहस करता हूँ हो के अबजद-ख़्वाँ
किस क़दर बे-हिसाब करता हूँ
कोई बुझती है ये भड़क में अबस
तिश्नगी पर इताब करता हूँ
सर तलक आब-ए-तेग़ में हूँ ग़र्क़
अब तईं आब आब करता हूँ
जी में फिरता है ‘मीर’ वो मेरे
जागता हूँ कि ख़्वाब करता हूँ
गुल ब बुलबुल बहार में देखा
गुल ब बुलबुल बहार में देखा
एक तुझको हज़ार में देखा
जल गया दिल सफ़ेद हैं आखें
यह तो कुछ इंतज़ार में देखा
आबले का भी होना दामनगीर
तेरे कूचे के खार में देखा
जिन बालाओं को ‘मीर’ सुनते थे
उनको इस रोज़गार में देखा
ज़ख्म झेले दाग़ भी खाए बोहत
ज़ख्म झेले दाग़ भी खाए बोहत
दिल लगा कर हम तो पछताए बोहत
दैर से सू-ए-हरम आया न टुक
हम मिजाज अपना इधर लाये बोहत
फूल, गुल, शम्स-ओ-क़मर सारे ही थे
पर हमें उनमें तुम ही भाये बोहत
रोवेंगे सोने को हमसाये बोहत
मीर से पूछा जो मैं आशिक हो तुम
हो के कुछ चुपके से शरमाये बोहत
कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
धूम है फिर बहार आने की
वो जो फिरता है मुझ से दूर ही दूर
है ये तरकीब जी के जाने की
तेज़ यूँ ही न थी शब-ए-आतिश-ए-शौक़
थी खबर गर्म उस के आने की
जो है सो पाइमाल-ए-ग़म है मीर
चाल बेडोल है ज़माने की
अए हम-सफ़र न आब्ले
अए हम-सफ़र न आब्ले को पहुँचे चश्म-ए-तर
लगा है मेरे पाओं में आ ख़ार देखना
होना न चार चश्म दिक उस ज़ुल्म-पैशा से
होशियार ज़ीन्हार ख़बरदार देखना
सय्यद दिल है दाग़-ए-जुदाई से रश्क-ए-बाग़
तुझको भी हो नसीब ये गुलज़ार देखना
गर ज़मज़मा यही है कोई दिन तो हम-सफ़र
इस फ़स्ल ही में हम को गिरफ़्तार देखना
बुल-बुल हमारे गुल पे न गुस्ताख़ कर नज़र
हो जायेगा गले का कहीं हार देखना
शायद हमारी ख़ाक से कुछ हो भी अए नसीम
ग़िर्बाल कर के कूचा-ए-दिलदार देखना
उस ख़ुश-निगाह के इश्क़ से परहेज़ कीजिओ ‘मीर’
जाता है लेके जी ही ये आज़ार देखना
उम्र भर हम रहे शराबी से
उम्र भर हम रहे शराबी से
दिल-ए-पुर्खूं की इक गुलाबी से
खिलना कम-कम कली ने सीखा है
उसकी आँखों की नीम ख़्वाबी से
काम थे इश्क़ में बहुत ऐ मीर
हम ही फ़ारिग़ हुए शताबी से
अंदोह से हुई न रिहाई तमाम शब
अंदोह से हुई न रिहाई तमाम शब
मुझ दिल-जले को नींद न आई तमाम शब
चमक चली गई थी सितारों की सुबह तक,
की आस्माँ से दीदा-बराई तमाम शब
जब मैंने शुरू क़िस्सा किया आँखें खोल दीं,
यक़ीनी थी मुझ को चश्म-नुमाई तमाम शब
वक़्त-ए-सियाह ने देर में कल यावरी सी की,
थी दुश्मनों से इन की लड़ाई तमाम शब
तारे से तेरी पलकों पे क़तरे अश्क के,
दे रहे हैं “मीर” दिखाई तमाम शब