विश्व-गुरु के अकिंचन शिष्यत्व पर-वतन तुम्हारे साथ है-शंकर लाल द्विवेदी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankar Lal Dwivedi
1
माँगता है व्यर्थ, सबसे ज्ञान की क्यों भीख?
ओ अभागे देश! गुरु का मान करना सीख।
विश्व-गुरु! तू हो न सहसा यों अकिंचन शिष्य-
नील-अम्बर में कहीं, बन कर ब्रहस्पति दीख।।
2
गेह में मनु के, उड़ी है मरघटों-सी धूल,
काटती है पालने की डोर, प्यासी भूख़।
हिचकियाँ भरने लगे हैं, कुलमुलाते प्राण,
वक्ष श्रद्धा का, मरुस्थल सा गया है सूख।।
3
आह! नंगे पाँव, पथ पर जा रहा है कौन?
धूप कितनी तेज़ है! कितना दहकता रेत!!
आँख में आँसू, पसीने से पुरा है भाल-
‘हाँ, यहीं हैं पाण्डवों के लहलहाते खेत’।।
4
पास अर्जुन के गए, गुरु-द्रोण बोले-‘वत्स!-
सूखता है कंठ, मुझको लग रही है प्यास;
घूँट भर पानी पिऊँगा, फिर गहूँगा पंथ’-
पार्थ भूले हैं नमन का आचरण-अभ्यास।।
5
पीठ फेरे पूछते हैं- ‘और कुछ आदेश?-
व्यस्त हूँ, मेरा समय क्यों पी रहे हो व्यर्थ?
राह देखो, दूर जाना है, घिरेगी साँझ-
भीम आए, तो कहीं कुछ और हो न अनर्थ’।।
6
गुरु समर्थ पढ़ा रहे हैं, डूब कर यह पाठ-
‘वत्स! जाओ वार दो- निज मातृ-भू पर शीष’।
देखते शिवराज- जूड़ों में गुँथे कुछ फूल,
सालते हैं बोल, उठतीं हैं हृदय में टीस।।
7
राम जाने, जा रहे हो किस दिशा की ओर?-
देश मेरे! अनुसरण करने लगे हो आज।
‘मौर्यवर’!- ‘चाणक्य’ से करते नहीं हो बात-
वाह! झुकते भी नहीं, आने लगी है लाज!।।
8
बादलों के धूम पर ही छूटते हैं बाण,
दूब पर छाने लगा है- ‘गोखरू’ का वंश।
बेल-पत्रों से भरे थे- कल हमारे हाथ,
छटपटाता है उन्हीं में, आज आहत हंस।।
9
ये अनावश्यक टहनियाँ छाँटते हैं; किन्तु-
अँगुलियों का रक्त पी जाते तृषातुर शूल।
आँसुओं तक, है उभरता कसमसाता रोष-
डबडबाती आँख, डगमग डूबते मस्तूल।।
10
यह अँधेरा कक्ष, सीलन, मत्सरों का गर्व,
सींखचों के पार, बिखरा ज्योत्सना का ढेर।
बच सकें दुर्गन्ध से यों नासिका के रंध्र,
बन्द हाथों से करें, अब और कितनी देर?
11
धिक्, हमारी सभ्यता के-वर्तमान विकास,
धिक्, हमारी परिधि का सिमटा हुआ यह बिंदु।
मान्यता अस्थिर लहर को दे रहे हैं हम-
काँपते हैं तब-कि जब हम तैरते हैं सिन्धु।।
12
पूर्ण कर, पश्चिम दिशा से पूर्व तक का चक्र-
सूर्य थोड़ा सो गया, तो हो गए एकत्र-
तिमिर-कण सम, सारथी को एक ओर धकेल-
नाग फैले, बामियों से निकल कर सर्वत्र।।
13
आश्रमों से गेह तक- हैं दुर्ग की प्राचीर,
फन उठाए, लहरते, भरते हुए फूत्कार।
घूमते हैं, यों चतुर्दिक तक्षकों के दूत-
कर नहीं पाते, किसी के अधर मंत्रोच्चार।।
14
खोंपियों भर में, कसा है बस शिला का छोर,
एकदम नीचे- गहन होता अँधेरा- गर्त।
एकटक जम जाय, यदि इस ओर कातर दृष्टि-
क्षण गया कि ‘छपाक’- पी जाएँ सहज आवर्त।।
15
जागरण का अर्थ क्या, अस्तित्व ही मिट जाय-
स्रष्टि पर छाने लगे, बस शयन का विस्तार।
कौन कल्पित रात्रि में मूँदे रहेगा नेत्र-
पर्वतों का ही रहे, यदि भोर पर अधिकार।।
16
वक्ष पर समकोणवत, आ तो गईं हैं बाँह-
एक पग उठकर जमे, है शेष इतनी देर।
चल पड़ा, तो यात्रा करके रहेगा पूर्ण-
सारथी पश्चिम दिशा तक, रौंदता अँधेर।।
17
आयु पर हो पवन! तेरी कृपा क्यों न विशेष,
अधिकतम है, रवि-उदय तक मोतियों का हास।
कब तलक देगी सहारा बादलों की छाँह,
पवन को जब तक नहीं, इस कृत्य का आभास।।
18
ओस भीगी घास पर, क्षण भर जमे पद-चिहन!
पूछना है- व्यर्थ होना व्यग्र और अधीर।
देख लेना, कल स्वयं ही घूमते रथ चक्र-
लीक-लीक अनन्त तक जातीं असंख्य लकीर।।
19
नाग-यज्ञ रुके न, जनमेजय! तुम्हें सौगंध,
भूल मत जाना, परीक्षत-देह का विष-दंश।
इन्द्र का अनुनय, न हो स्वीकार अब की बार-
अंश-अंश मिटे, धरा से दुष्ट वासुकि-वंश।।
20
फिर कहीं एकांत में, हो सघन तरु की छाँह,
छन रही हो टहनियों से दो-प्रहर की धूप।
गुरु उठाए हाथ, देते हों विहँस आशीष-
भाल चरणों में धरे हों- चक्रवर्ती भूप।।
-६ नवंबर, १९६७