विदा-क्षण आ पहुंचा-आसावरी-गोपालदास नीरज-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Gopal Das Neeraj
जब तक कुछ अपनी कहूँ, सुनूँ जग के मन की
तब तक ले डोली द्वार विदा-क्षण आ पहुंचा !
फूटे भी तो थे बोल न श्वास कुमारी के
गीतोंवाली इकतारा गिरकर टूट गया,
हो भी न सका था परिचय दृग का दर्पन से
काजल आँसू बनकर छलका औ” छूट गया,
तन भींगा, मन भींगा, कण-कण, तृण-तृण भींगा,
देहरी-द्वारा, आंगन-उपवन, त्रिभुवन भींगा,
जब तक मैं दीप जलाऊँ कुटिया के द्वारे
तब तक बरसात मचाता सावन आ पहुंचा!
जब तक कुछ अपनी कहूँ, सुनूँ जग के मन की
तब तक ले डोली द्वार विदा-क्षण आ पहुंचा !
रह गये धरे के धरे ताक में ज्ञान-ग्रन्थ,
छुट गई बँधी की बँधी रतनवाली गठरी
लुट गई सजी की सजी रूप की हाट और
देखती खड़ी की खड़ी रही सिगरी नगरी,
कुछ ऐसी लूट मची जीवन चौराहे पर,
खुद को ही खुद लूटने लगा हर सौदागर,
औ’ जब तक कोई आए हमको समझाए
तब तक भुगताने ब्याज महाजन आ पहुंचा!
जब तक कुछ अपनी कहूँ, सुनूँ जग के मन की
तब तक ले डोली द्वार विदा-क्षण आ पहुंचा !
आँसू ने दी आवाज तनिक रुक निर्मोही,
सिन्दूर तड़प बोला अब कहाँ मिलन होगा,
अलकों ने कहा ज़रा यह लट तो सहला जा
क्या ठीक कि सपनों का गौना किस दिन होगा !
सिंगार सिसकता रहा, बिलखता रहा हिया,
दुहराता रहा गगन से चातक ‘पिया पिया’,
पर जब तक कोई टेर कहीं पहुंचे तब तक
हर कोलाहल का हल सूनापन आ पहुंचा!
जब तक कुछ अपनी कहूँ, सुनूँ जग के मन की
तब तक ले डोली द्वार विदा-क्षण आ पहुंचा !
बाँहों ने बाँहों को बढ़कर छूना चाहा,
अधरों ने अधरों से मिलने को शोर किया,
आँखें आँखों में खो जाने को मचल पड़ीं
प्राणों ने प्राणों के हित तन झकझोर दिया,
सब ने खींचातानी की, आनाकानी की,
अपनी-अपनी कमज़ोरी की अगवानी की,
पर जब तक पहुंचे प्यास तृप्ति के दरवाज़े
तब तक प्याले का अमृत गरल बन आ पहुंचा !
जब तक कुछ अपनी कहूँ, सुनूँ जग के मन की
तब तक ले डोली द्वार विदा-क्षण आ पहुंचा !
! कल सुबह एक मनिहारिन मेले में बैठी
थी बेच रही चूड़ियाँ हज़ारों चालों की,
इकरंगी-दोरंगी, भाँवर की, गौने की
ब्याही अनब्याही सभी कलाईवालों की,
कौतूहलवश मैंने भी चाहा, मैं अपनी
घरनी के लिए ले चलूँ चूड़ी सितवर्णी,
पर जब तक मैं कुछ मोल करूँ उससे तब तक
खुद मुझे खोजता कोई कंगन आ पहुंचा!
जब तक कुछ अपनी कहूँ, सुनूँ जग के मन की
तब तक ले डोली द्वार विदा-क्षण आ पहुंचा !