विजय दशमी-तार सप्तक -गिरिजा कुमार माथुर-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Girija Kumar Mathur
आसमान की आदिम छायाओं के नीचे,
दक्षिण का यह महासिन्धु अब भी टकराता,
सेतुबंध की श्यामल, बहती चट्टानों से।
आँखों में, यह अन्तरीप के मन्दिर की चोटी उठती है,
जिस पर रोज़ साँझ छा जाते,
युग-युग रंजित, लाल, सुनहले, पीले बादल,
एक पुरातन तूफ़ानी-सी याद दिला कर,
जब, अविलम्ब, अग्नि-शर-चाप उठाते ही में,
नभ-चुम्बी, काले पर्वत-सा ज्वाल मिटा था ।
संस्कृतियों पर संस्कृतियों के महल मिट गये,
लौह नींव पर खड़े हुए गढ़, दुर्ग, मिनारें ।
दृढ़ स्तम्भ आधार भंग हो
गिरे, विभिन्न निशान, शास्ति के केतन डूबे ।
महाकाल के भारी पाँवों से न मिट सके,
चित्रकूट, किष्किन्धा, नीलगिरी के जंगल,
पंचवटी की गुंथी हुई अलसायी छांहें।
वाल्मीकि के मृत्युंजय स्वर ले अपने पर
सरयू, गोदावरी, नील, कृष्णा की धारा।
प्रेत-भरे इस यन्त्रकाल में,
आज कोटि युग की दूरी से यादे आतीं,
शम्भु-चाप से अविच्छिन्न इतिहास पुराने,
और वज्र-विद्युत से पूरित अग्नि-नयन वे
जिन में भस्म हुए लंका-से पाप हज़ारों।
अब भी विजय-मार्ग में वह केतन दिखता है
लौट रहे उस मोर-विनिर्मित कुसुम-यान का,
लम्बे-लम्बे दुख-वियोग की अन्तिम-वेला ।
सीता के गोरे, काँटों से भरे चरण वे,
अग्नि-परीक्षाएँ पग-पग की;
घोर जंगलों, नदियों से जब पार उतरकर,
उन बिछुड़े नयनों का सुखमय मिलन हुआ था।
और चतुर्दश वर्षों पहले का प्रभात वह,
सुमन-सेज जब छोड़े तीन सुकुमार मूर्तियां,
तर, मण्डित, वन-पथ पर चलीं तपस्वी बन कर,
राग-रंगीली दुनिया में आते ही आते
आसमान की आदिम छायाओं के नीचे
सेतुबंध से सिन्धु आज भी टकराता है ।-
पदचिह्नों पर पदचिह्नों के अंक बन गये
कितने स्वर, ध्वनियाँ, कोलाहल डूब गये हैं ।
किन्तु सृजन की और मरण की रेखायों में
चिर ज्वलन्त निष्कम्प एक लौ फिरती जाती,
धरती का तप जिस प्रकाश में पूर्ण हुआ है ।
देश, दिशाएँ, काल लोक-सीमा से आगे,
वह त्रिमूर्ति चलती जाती मन के फूलों पर,
अपने श्यामल गौर चरण से पावन करती
वर्षों, सदियों, युगों-युगों के इतिहासों को ।