लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में-बहादुर शाह ज़फ़र-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Bahadur Shah Zafar
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में
बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला
किस्मत में कैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में
इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
दिन जिंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मज़ार में
कितना है बदनसीब “ज़फ़र” दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
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