रोज़ की मसाफ़त से चूर हो गए दरिया-दर्द आशोब -अहमद फ़राज़-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Ahmed Faraz,
रोज़ की मसाफ़त से चूर हो गये दरिया
पत्थरों के सीनों पे थक के सो गये दरिया
जाने कौन काटेगा फ़स्ल लालो-गोहर की
रेतीली ज़मीनों में संग बो गये दरिया
ऐ सुहाबे-ग़म ! कब तक ये गुरेज़ आँखों से
इंतिज़ारे-तूफ़ाँ में ख़ुश्क हो गये दरिया
चाँदनी से आती है किसको ढूँढने ख़ुश्बू
साहिलों के फूलों को कब से रो गये दरिया
बुझ गई हैं कंदीलें ख़्वाब हो गये चेहरे
आँख के जज़ीरों को फिर डुबो गये दरिया
दिल चटान की सूरत सैले-ग़म प’ हँसता है
जब न बन पड़ा कुछ भी दाग़ धो गये दरिया
ज़ख़्मे-नामुरादी से हम फ़राज़ ज़िन्दा हैं
देखना समुंदर में ग़र्क़ हो गये दरिया