post Contents ( Hindi.Shayri.Page)
- 1 उसकी कत्थई आँखों में हैं जंतर-मंतर सब
- 2 जो दे रहे हैं फल तुम्हे पके पकाए हुए
- 3 मैं लाख कह दूँ के आकाश हूँ ज़मीं हूँ मैं
- 4 सब हुनर अपनी बुराई में दिखाई देंगे
- 5 जंग है तो जंग का मंज़र भी होना चाहिए
- 6 बन के इक दिन हम ज़रूरतमंद गिनते रह गये
- 7 जब मैं दुनिया के लिए बेच के घर आया था
- 8 चेहरे को अपने फूल से कब तक बचायेगा
- 9 आपके आते ही मौसम को सदा दी जायेगी
- 10 वो सामने पहाड़ है हसरत निकाल ले
- 11 हिन्दी कविता- Hindi.Shayri.Page
रुत-राहत इन्दौरी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Rahat Indori Part 5
उसकी कत्थई आँखों में हैं जंतर-मंतर सब
उसकी कत्थई आँखों में हैं, जंतर-मंतर सब
चाक़ू-वाक़ू, छुरियाँ-वुरियाँ, ख़ंजर-वंजर सब
मुझसे बिछड़ कर वह भी कहाँ अब पहले जैसी है
फीके पड़ गए कपड़े-वपड़े, ज़ेवर-वेवर सब
जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे-रूठे हैं
चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब
जाने मैं किस दिन डूबूँगा फ़िक्रें करते हैं
कश्ती-वश्ती, दरिया-वरिया लंगर-वंगर सब
इश्क विश्क के सारे नुस्ख़े मुझसे सीखते हैं
ताहर वाहर, मंज़र वंज़र, जौहर वोहर सब
जो दे रहे हैं फल तुम्हे पके पकाए हुए
जो दे रहे हैं फल तुम्हे पके पकाए हुए
वोह पेड़ मिले हैं तुम्हे लगे लगाये हुए
ज़मीर इनके बड़े दागदार है
ये फिर रहे है जो चेहरे धुले धुलाए हुए
जमीन ओढ़ के सोये हैं दुनिया में
न जाने कितने सिकंदर थके थकाए हुए
यह क्या जरूरी है की गज़ले ख़ुद लिखी जाए
खरीद लायेंगे कपड़े सिले सिलाये हुए
हमारे मुल्क में खादी की बरकते हैं मियां
चुने चुनाए हुए हैं सारे छटे छटाये हुए
मैं लाख कह दूँ के आकाश हूँ ज़मीं हूँ मैं
मैं लाख कह दूँ कि आकाश हूँ ज़मीं हूँ मैं
मगर उसे तो ख़बर है कि कुछ नहीं हूँ मैं
अजीब लोग हैं मेरी तलाश में मुझ को
वहाँ पे ढूँड रहे हैं जहाँ नहीं हूँ मैं
मैं आईनों से तो मायूस लौट आया था
मगर किसी ने बताया बहुत हसीं हूँ मैं
वो ज़र्रे ज़र्रे में मौजूद है मगर मैं भी
कहीं कहीं हूँ कहाँ हूँ कहीं नहीं हूँ मैं
वो इक किताब जो मंसूब तेरे नाम से है
उसी किताब के अंदर कहीं कहीं हूँ मैं
सितारो आओ मिरी राह में बिखर जाओ
ये मेरा हुक्म है हालाँकि कुछ नहीं हूँ मैं
यहीं हुसैन भी गुज़रे यहीं यज़ीद भी था
हज़ार रंग में डूबी हुई ज़मीं हूँ मैं
ये बूढ़ी क़ब्रें तुम्हें कुछ नहीं बताएँगी
मुझे तलाश करो दोस्तो यहीं हूँ मैं
सब हुनर अपनी बुराई में दिखाई देंगे
सब हुनर अपनी बुराई में दिखाई देंगे
ऐब तो बस मेरे भाई में दिखाई देंगे
उसकी आँखों में नज़र आएँगे इतने सूरज
जितने पैबन्द रज़ाई में दिखाई देंगे
हमने अपनी कई सदियाँ यहीं दफनाई हैं
हम ज़मीनों की ख़ुदाई में दिखाई देंगे
ज़िक्र रिश्तों के तह्हफुज़ का जो निकलेगा तो हम
राजपूतों की कलाई में दिखायी देंगे
और कुछ रोज़ है झीलों पे सुलगती हुई रेत
सब्ज़ मंज़र भी जुलाई में दिखाई देंगे
जंग है तो जंग का मंज़र भी होना चाहिए
जंग है तो जंग का मंज़र भी होना चाहिए
सिर्फ़ नेज़े हाथ में हैं सर भी होना चाहिए
है धुआँ चारों तरफ बीनाई लेकर क्या करूं
सिर्फ़ आँखें ही नहीं मंज़र भी होना चाहिए
लेके इक मुश्ते ज़मीं उड़ते हो लेकिन सोच लो
आसमाँ के ढाँपने को पर भी होना चाहिए
मसअले कूछ और हैं बे चेहरा लोगों के लिए
आईने काफ़ी नहीं पत्थर भी होना चाहिए
ताना ए आवारगी मुझको ना दो किस्मत को दो
घर तो जा सकता हूं लेकिन घर भी होना चाहिए
बन के इक दिन हम ज़रूरतमंद गिनते रह गये
बन के इक दिन हम ज़रूरतमंद गिनते रह गये
कितने दरवाज़े हुए है बंद गिनते रह गये
कौड़ियों के मोल ले ली मैने सारी कायनात
सब मेरी पोशाक के पैबन्द गिनते रह गये
वो अकेला था निहत्था था जो बाज़ी ले गया
और हम अपने जवाँ फ़रज़ंद गिनते रह गये
इतनी दौलत इक भिखारी के यहाँ निकली के बस
शहर के जितने थे दौलतमंद गिनते रह गये
शाख़ पर जितने थे फल कोई चुरा कर ले गया
और हम अख़लाक के पाबन्द गिनते रह गये
जब मैं दुनिया के लिए बेच के घर आया था
जब मैं दुनिया के लिए बेच के घर आया था
उन दिनों भी मेरे हिस्से में सिफ़र आया था
लोग पीपल के दरख़्तों को ख़ुदा कहने लगे
मैं ज़रा धूप से बचने को इधर आया था
इत्तिफाक़ ऐसा के मैं घर से ना निकला वरना
ख़ून उस शख़्स की आँखों में उतर आया था
खिड़कियां बन्द ना होतीं तो झुलस ही जाता
आग उगलता हुआ सूरज मेरे घर आया था
आईना तोड़ गया फिर कोई आवारा ख़याल
मुश्किलों से तो दुआओं में असर आया था
मेरे माज़ी का खंडर इतना महकता क्यूँ है
हो ना हो कोई ज़रूर आज इधर आया था
मैंने माना के मेरी उम्र है चौदह सौ साल
हाँ मगर इससे भी पहले मैं इधर आया था
चेहरे को अपने फूल से कब तक बचायेगा
चेहरे को अपने फूल से कब तक बचायेगा
ये आईना कभी न कभी टूट जायेगा
गुंचे अगर हंसेंगे तो कहलायेगी बहार
मैं मुस्कुरा दिया तो निगाहों में आयेगा
ज़ख़्मों के फूल महकेंगे जब शाम आयेगी
दिन डूबने के साथ ही दिल डूब जायेगा
मासूम पत्तियों का लहू पी के सुर्ख है
ये फूल अब चमन में कोई गुल खिलायेगा
कितनी उदास रात है सरवर को ढूँढिये
वो मिल गया तो कोई लतीफा सुनायेगा
आपके आते ही मौसम को सदा दी जायेगी
आपके आते ही मौसम को सदा दी जायेगी
टहनियों को सज्जा पत्रों की क़बा दी जायेगी
मुसकुराता जो मिला उसको सजा दी जायेगी
आँसुओं की इस कदर कीमत बढ़ा दी जायेगी
आप अपनी क़ब्र में दब जायेगी काग़ज़ की लाश
और ये दीवार लफ़्ज़ों की गिरा दी जायेगी
सज रहे हैं करवटों के फूल मेरी सेज पर
ये चिता भी सुबह से पहले बुझा दी जायेगी
अपनी आवाज़ें सलामत चाहते हो तो सुनो
कब तलक इन गूँगे बेहरों को सदा दी जायेगी
वो सामने पहाड़ है हसरत निकाल ले
वो सामने पहाड़ है हसरत निकाल ले
तेशा नहीं तो फूल का रेशा संभाल ले
फिर शौक से बढ़ाना इधर दोस्ती का हाथ
पहले तू मुझको अच्छी तरह देखभाल ले
ऐसे तो ख़त्म हो ना सकेगा मुकाबला
अब मशविरा यही है के सिक्का उछाल ले
ये लगज़िशें तो मेरी विरासत में आयी हैं
अब तेरा काम है के गिरूं तो संभाल ले
फिर रात ले के आयी है तनहायी का फुसूं
ताज़ा ग़ज़ल के वास्ते मिसरा निकाल ले
आँखों के लफ़्ज़, ज़ुल्फ का झरना, लबों के चाँद
सब फूल तोड़ तोड़ के ग़ज़लों में डाल ले
यारो मुआफ़ मीर का मैं मोतकिद नहीं
ऐसी भी क्या ग़ज़ल जो कलेजा निकाल ले