रविश-ए-गुल है कहां यार हंसाने वाले-बहादुर शाह ज़फ़र-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Bahadur Shah Zafar
रविश-ए-गुल है कहां यार हंसाने वाले
हमको शबनम की तरह सब है रुलाने वाले
सोजिशे-दिल का नहीं अश्क बुझाने वाले
बल्कि हैं और भी यह आग लगाने वाले
मुंह पे सब जर्दी-ए-रुखसार कहे देती है
क्या करें राज मुहब्बत के छिपाने वाले
देखिए दाग जिगर पर हों हमारे कितने
वह तो इक गुल हैं नया रोज खिलाने वाले
दिल को करते है बुतां, थोड़े से मतलब पे खराब
ईंट के वास्ते, मस्जिद हैं ये ढाने वाले
नाले हर शब को जगाते हैं ये हमसायों को
बख्त-ख्वाबीदा को हों काश, जगाने वाले
खत मेरा पढ़ के जो करता है वो पुर्जे-पुर्जे
ऐ ‘ज़फ़र’, कुछ तो पढ़ाते हैं पढ़ाने वाले