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रचनाएँ १९६२-१९६३ की -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 3
दिये की माँग
रक्त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्नेह से मैंने जगाया।
बड़ा अचरज हुया
किन्तु विवेक बोला:
आज अचरज की जगह दुनिया नहरं है,
जो असंभव को और संभव को विभाजित कर रही थी
रेख अब वह मिट रही है।
आँख फाड़ों और देखो
नग्न-निमर्म सामने जो आज आया।
रक्त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्नेह से मैंने जगाया।
वक्र भौंहें हुईं
किन्तु विवेक बोला:
क्रोध ने कोई समस्या हल कभी की?
दीप चकताचूर होकर भूमि के ऊपर पड़ा है,
तेल मिट्टी सोख़ती है,
वर्तिका मुँह किए काला,
बोल तेरी आँख को यह चित्र भाया?
रक्त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्नेह से मैंने जगाया।
मन बड़ा ही दुखी,
किन्तु विवेक चुप है।
भाग्य-चक्र में पड़ा कितना कि मिट्टी से दिया हो,
लाख आँसु के कणों का सत्त कण भर स्नेह विजेता,
वर्तिका में हृदय तंतु बटे गए थे,
प्राण ही जलता रहा है।
हाय, पावस की निशा में, दीप, तुमने क्या सुनाया?
रक्त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्नेह से मैंने जगाया।
स्नेह सब कुछ दान,
मैंने क्या बचाया?
एक अंतर्दाह, चाहूँ तो कभी गल-पिघल पाऊँ।
क्या बदा था, अंत में मैं रक्त के आँसू बहाऊँ?
माँग पूरी कर चुका हूँ,
रिक्त दीपक भर चुका हूँ,
है मुझे संतोष मैंने आज यह ऋण भी चुकाया।
रक्त मेरा माँगते हैं।
कौन?
वे ही दीप जिनको स्नेह से मैंने जगाया।
दो बजनिए
“हमारी तो कभी शादी न हुई,
न कभी बारात सजी,
न कभी दूल्हन आई,
न घर पर बधाई बजी,
हम तो इस जीवन में क्वाँरे ही रह गए।”
दूल्हन को साथ लिए लौटी बारात को
दूल्हे के घर पर लगाकर,
एक बार पूरे जोश, पूरे जोर-शोर से
बाजों को बजाकर,
आधी रात सोए हुए लोगों को जगाकर
बैंड बिदा हो गया।
अलग-अलग हो चले बजनिए,
मौन-थके बाजों को काँधे पर लादे हुए,
सूनी अँधेरी, अलसाई हुई राहों से।
ताज़ औ’ सिरताज चले साथ-साथ-
दोनों की ढली उमर,
थोड़े-से पके बाल,
थोड़ी-सी झुकी कमर-
दोनों थे एकाकी,
डेरा था एक ही।
दोनों ने रँगे-चुँगी, चमकदार
वर्दी उतारकर खूँटी पर टाँग दी,
मैली-सी तहमत लगा ली,
बीड़ी सुलगा ली,
और चित लेट गए ढीली पड़ी खाटों पर।
लंबी-सी साँस ली सिरताज़ ने-
“हमारी तो कभी शादी न हुई,
न कभी बारात चढ़ी,
न कभी दूल्हन आई,
न घर पर बधाई बजी,
हम तो इस जीवन में क्वाँरे ही रह गए।
दूसरों की खुशी में खुशियाँ मनाते रहे,
दूसरों की बारात में बस बाजा बजाते रहे!
हम तो इस जीवन में…”
ताज़ सुनता रहा,
फिर ज़रा खाँसकर
बैठ गया खाट पर,
और कहने लगा-
“दुनिया बड़ी ओछी है;
औरों को खुश देख
लोग कुढ़ा करते हैं,
मातम मनाते हैं, मरते हैं।
हमने तो औरों की खुशियों में
खुशियाँ मनाई है।
काहे का पछतावा?
कौन की बुराई है?
कौन की बुराई है?
लोग बड़े बेहाया हैं;
अपनी बारात का बाजा खुद बजाते हैं,
अपना गीत गाते हैं;
शत्रु है कि औरों के बारात का ही
बाजा हम बजा रहे,
दूल्हे मियाँ बनने से सदा शरमाते रहे;
मेहनत से कमाते रहे,
मेहनत का खाते रहे;
मालिक ने जो भी किया,
जो
भी दिया,
उसका गुन गाते रहे।”
खून के छापे
सुबह-सुबह उठकर क्या देखता हूँ
कि मेरे द्वार पर
खून-रँगे हाथों से कई छापे लगे हैं।
और मेरी पत्नी ने स्वप्न देखा है
कि एक नर-कंकाल आधी रात को
एक हाथ में खून की बाल्टी लिए आता है
और दूसरा हाथ उसमें डुबोकर
हमारे द्वार पर एक छापा लगाकर चला जाता है;
फिर एक दूसरा आता है,
फिर दूसरा, आता है,
फिर दूसरा, फिर दूसरा, फिर दूसरा… फिर…
यह बेगुनाह खून किनका है?
क्या उनका?
जो सदियों से सताए गए,
जगह-जगह से भगाए गए,
दुख सहने के इतने आदी हो गए
कि विद्रोह के सारे भाव ही खो गए,
और जब मौत के मुँह में जाने का हुक्म हुआ,
निर्विरोध, चुपचाप चले गए
और उसकी विषैली साँसों में घुटकर
सदा के लिए सो गए
उनके रक्त की छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।
यह बेज़बान ख़ून किनका है?
जिन्होंने आत्माहन् शासन के शिकंजे की
पकड़ से, जकड़ से छूटकर
उठने का, उभरने का प्रयत्न किया था
और उन्हें दबाकर, दलकर, कुचलकर
पीस डाला गया है।
उनके रक्त की छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।
यह जवान खून किनका है?
क्या उनका?
जो अपने माटी का गीत गाते,
अपनी आजादी का नारा लगाते,
हाथ उठाते, पाँव बढ़ाते आए थे
पर अब ऐसी चट्टान से टकराकर
अपना सिर फोड़ रहे हैं
जो न टलती है, न हिलती है, न पिघलती है।
उनके रक्त की छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।
यह मासुम खून किनका है?
जो अपने श्रम से धूप में, ताप में
धूलि में, धुएँ में सनकर, काले होकर
अपने सफेद-स्वामियों के लिए
साफ़ घर, साफ़ नगर, स्वच्छ पथ
उठाते रहे, बनाते रहे,
पर उनपर पाँव रखने, उनमें पैठने का
मूल्य अपने प्राणों से चुकाते रहे।
उनके रक्त के छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।
यह बेपनाह खून किनका है?
क्या उनका?
जो तवारीख की एक रेख से
अपने ही वतन में एक जलावतन हैं,
क्या उनका?
जो बहुमत के आवेश पर
सनक पर, पागलपन पर
अपराधी, दंड्य और वध्य
करार दिए जाते हैं,
निर्वास, निर्धन, निर्वसन,
निर्मम क़त्ल किए जाते हैं,
उनके रक्त की छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।
यह बेमालूम खून किनका है?
क्या उन सपनों का?
जो एक उगते हुए राष्ट्र की
पलको पर झूले थे, पुतलियों में पले थे,
पर लोभ ने, स्वार्थ ने, महत्त्वाकांक्षा ने
जिनकी आँखें फोड़ दी हैं,
जिनकी गर्दनें मरोड़ दी हैं।
उनके रक्त की छाप अगर लगनी थी तो
-के द्वार पर।
लेकिल इस अमानवीय अत्याचार, अन्याय
अनुचित, अकरणीय, अकरुण का
दायित्व किसने लिया?
जिके भी द्वार पर यह छापे लगे उसने,
पानी से घुला दिया,
चूने से पुता दिया।
किन्तु कवि-द्वार पर
छापे ये लगे रहें,
जो अनीति, अत्ति की
कथा कहें, व्यथा कहें,
और शब्द-यज्ञ में मनुष्य के कलुष दहें।
और मेरी पत्नी ने स्वप्न देखा है
कि नर-कंकाल
कवि-कवि के द्वार पर
ऐसे ही छापे लगा रहे हैं,
ऐसे ही शब्द-ज्वाला जगा रहे हैं।