ये मातम-ए-वक़्त की घड़ी है-मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Faiz Ahmed Faiz
ठहर गई आसमां की नदिया
वो जा लगी है उफ़क किनारे
उदास रंगों की चांद नैया
उतर गये साहले-ज़मीं पर
सभी खिवैया
तमाम तारे
उखड़ गई सांस पत्तियों की
चल गईं ऊंघ में हवाएं
गज़र बजा हुक़्मे-ख़ामशी का
तो चुप में गुम हो गईं सदाएं
शहर की गोरी की छातियों से
ढलक गई तीरगी की चादर
और इस बजाय
बिखर गये उसके तन-बदन पर
निरास तनहाईयों के साये
और उस की कुछ भी ख़बर नहीं है
किसी को कुछ भी ख़बर नहीं है
कि दिन ढले शहर से निकलकर
किधर को जाने का रुख़ किया था
न कोई जादा, न कोई मंज़िल
किसी मुसाफ़िर को
अब दिमाग़े-सफ़र नहीं है
ये वक़्त ज़ंजीरे-रोज़ो-शब की
कहीं से टूटी हुई कड़ी हैं
ये मातम-ए-वक़्त की घड़ी है
ये वक़्त आये तो बेइरादा
कभी-कभी मैं भी देखता हूं
उतारकर ज़ात का लबादा
कहीं सियाही मलामतों की
कहीं पे गुल-बूटे उलफ़तों के
कहीं लकीरें हैं आंसूयों की
कहीं पे ख़ूने-जिगर के धब्बे
ये चाक है पंजा-ए-अदू का
ये मुहर है यारे-मेहरबां की
ये लाल लब-हाए-महवशां के
ये मरहमत शैख़े-बदज़ुबां की
ये जामा-ए-रोज़ो-शब-गज़ीदा
मुझे ये पैराहने-दरीदा
अज़ीज़ भी, नापसन्द भी है
कभी ये फ़रमाने-जोशे-वहशत
कि नोचकर इसको फेंक डालो
कभी ये इसरारे-हर्फ़े-उलफ़त
कि चूमकर फिर गले लगा लो
ताशकन्द, १९७९