ये आये, वो आये-भूरी-भूरी खाक-धूल -गजानन माधव मुक्तिबोध-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Gajanan Madhav Muktibodh
#1.
ये आये, वो आये, ये चले आये
नोचते चले गये
चिंदी खींच चर्र से फाड़ते चले गये
मेरा बुश-कोट अब लत्तर है
उनके मैल-पसीने के हाथों से
लगातार बद से बदतर है
वे साहब हैं
मेरे इस बुश-कोट की आस्तीनें गायब हैं!!
#2.
मैंने उसे खूंटी से उतार
दूर फेंक दिया
फिंका कि दूरियां पार कर तिरकर वह
घूरे के पास एक
सूखी हुई तुलसी से चिपककर बैठ गया
पत्ती-बिन शाखों की तीलियों पर जा लटका
उलझकर फैल गया
उलटी रखी हुयी झाड़ू-सी तुलसी पर
बुश-कोट इज्जत का
कांटों से खेल गया
मुझको फ़ज़ीहत में
अजीब ढकेल गया !!
#3.
किताबें पढ़ता हूँ लगातार
सूने में देखता रहता हूँ
कि मेरे ग़रीब उस कपड़े को क्या हुआ
कि मुझसे आज़ाद हो
घूरे पर खड़ी हुई तुलसी से किया प्यार
लगातार !!
#4.
इतने में दसवीं मंज़िल की सफ़ेद छत पर से
शिम्पैंज़ी
आता है सामने
हाथ में एक बड़ा पपीता है
दूसरे में पुस्तक है, गीता है ।
पढ़ता है ज़ोर से
सब लोग तमाशा देखते हैं, शोर
सुनते हैं, जगत् थरथराता है !!
#5.
और मैं बिजली के खंभे पर सहसा चढ़ जाता हूँ
उंचे बढ़ जाता हूँ !!
कहता हूँ मेरा बुशकोट मुझे ला दो तो
मैं जो सोया हुआ हूँ मुझको जगा दो तो
उगा दो तो !!
6.
शिम्पैंज़ी-गीता के जितने भी शब्द हैं
उनका मैं अर्थ जब उलटाकर सोचता
तब वाक्य बन जाते हैं
मेरे तन-मन के इलेक्ट्रान
नाचने लगते हैं,
उन वाक्यों को पढ़ने और बाँचने लगते हैं !!
#7.
अजीब तमाशा है,
कहता वह कीश मुझे
मैं अनस्तित्व हूँ
तुम्हारे अस्तित्व का एक खण्ड-तत्तव हूँ
तुम मुझे बाँटते रहते हो
और मैं बँटता चला जाता हूँ
एक से दूसरे के पास
दूसरे से तीसरे के पास
बंटता और बढ़ता चला जाता हूँ
मैं हूँ आत्म-संहार की शक्ति
पुरानी विरक्ति और भक्ति हूँ !!
#8.
इसलिए तुमने जो बुशकोट पहना था
सिर्फ़ एक गहना था
उसको तुम्हारे ही लोगों ने तोड़ दिया
और वह इज्जत का प्रतीक अब तुमसे आज़ाद हुआ
घूरे पर तुलसी पर बैठ गया
वह तुलसी जो उलटी रखी हुई
झाड़ू-सी घूरे के पास खड़ी हुई है
क्योंकि अध्यात्म के चोगे सब
अकादमी-कुर्सी पर शोभित हैं
इसलिए तुलसी वह निन्दित है !!
ऐसा एक चोगा अब तुम भी खुद सिलवा लो !
#9.
बिजली के खम्भे के सिरे पर चढ़ करके
ऊँचा बैठा हुआ
वह जो मैं खुद हूँ
धक्के से नीचे गिर पड़ता हूँ
एक आग धरती के भीतर से
अकस्मात् उभर-उभर उठ आती है
मैं फैल जाता हूँ
जलकर मैं सिर्फ़ एक गर्मी-सा लहराता
लहराता रहता हूँ !!
#10.
हवा में थोड़ा-सा कांप उठा मुस्काया !
छा गया !!
उलटी रखी झाड़ू-सी झाड़ी-सी तुलसी को
शायद वह भा गया !!
लेकिन मैं पूछता हूँ ओ तुलसी
तू क्योंकर मूर्ख हुई
आज जहाँ ढेर-ढेर घूरा है वहाँ कभी आँगन था
बच्चों का जन-मन था
तू क्योंकर सूख गई !!
आज तेरे इस जमाने में तेरे न होने का
दु:ख मुझे अब भी है
इसलिए, मेरा उत्क्षिप्त अब धारण कर
मेरे इस होने का पूरा निवारण कर ।