मैं मजदूर हूँ-अंतर्यात्रा-परंतप मिश्र-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Parantap Mishra
कर्म की अँगीठी पर
वेदना की आग से
स्वाभिमान की रोटियाँ पकाई हैं
न लेता भीख, न अहसान किसी का
परिश्रम के पवन से
निज की साँसें चलाई हैं
पर आज रोटी को मोहताज
तजकर सब लोकलाज
मूक बचपन को निहार
झुकी नजरों से हाथ फैलाई है
कोरोना की महामारी से
बन गए बिमारी
जिन शहरों को किया आबाद
उन्हें ही है परहेज हमसे
ये जानते हुए भी कि
इन ऊँची इमारतों के नींव में
हमारे खून भी सने हैं
कल-कारखानों के धन्ना-सेठ
हमारे पसीने को बेचकर बने हैं
इनके यश-वैभव के तम्बू
हमारे साँसों पर तने हैं
और अब
रक्त मज्जा पौरुष अशेष
जब सबकुछ हूँ लुटा चुका
अपने कंधों पर शेष अस्थियों को
किसी शाप की तरह ढो रहा हूँ
हृदय की मंद होती स्पन्दनों को
हर घड़ी में खो रहा हूँ
हाय! कितना मैं अवांछित
असहाय होकर रो रहा हूँ
अन्न से निर्धन बना मैं
भूख से क्या सो रहा हूँ ?
तुम तो ठहरे धन-पिपाशु
निकालते अपने घरों से
यदि मृत्यु का ही वरण
है मेरी नियति
तो मैं कर रहा स्वीकार
गाँव अपना छोड़ आया
कौड़ियों की आस में
क्या कमाया, क्या गँवाया
हर्ष के वनवास में
स्वयं से भी दूर कितना आ गया हूँ
क्यों न जाकर स्वजनों के
प्रेम का प्रसाद पा लूँ
कुछ पलों के ही लिए मैं
स्वप्न अपने फिर सजा लूँ
जानता हूँ, मिट्टी का दिया हूँ
पर लौ की घटती रौशनी से
हाल दिल का मैं जला लूँ
हे! मानवता के ठेकेदारों
देखो हजारों मील चलते
सबकुछ लुटाकर हाथ मलते
अंगार से तपते पथ पर पैरों में
छालों से डगमग करते
अनजान डगर में गिरते-पड़ते
देखकर बिलखते नवजात शिशुओं को
निर्जन पथ पर मरणासन्न प्रसूता को
दम तोड़ती अल्हड़ जवानी को
आँखों में सूखते पानी को
नफ़े-नुक्सान से तौलते हो
सोचता हूँ, तुम कितने निरंकुश हो
मृत्यु! जो मेरे मार्ग में खड़ी हो
क्या इस जीवन से बड़ी हो ?
मैं हूँ नश्वर जानती हो ?
रार फिर क्यों ठानती हो ?
मर भी जायेंगें अगर
लौट कर आयेंगें घर
फिर धरा के प्रस्तरों की
शुष्कता से नमीं को सोखकर
अस्तित्व मेरा खिल उठेगा
आसमां को देखकर
इतिहास स्वयं को दुहराता है
विधाता भी एक कारोबारी है
आज मेरी तो कल तुम्हारी बारी है
हमारे बेबस ढुलकते आँसुओं से
सुनामी ले रही अंगड़ाई
कोई ज्यादा दिन नहीं रहता
न राजा, न ही रंक
अब वो ही देगा तुम्हें अंक
आखिरी हिसाब में मेरे भाई
साथ जाती है पुण्य की कमाई
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