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मेरे बाद -राहत इन्दौरी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Rahat Indori Part 2
समंदर पार होती जा रही है
समंदर पार होती जा रही है
दुआ पतवार होती जा रही है
कई दिन से मेरे अंदर की मस्जिद
खुदा-बेजार होती जा रही है
मसाइल, जँग, खुशबू, रँग, मौसम,
ग़ज़ल, अखबार होती जा रही है
कटी जाती हैं साँसों की पतंगें,
हवा तलवार होती जा रही है
गले कुछ दोस्त आकर मिल रहे हैं,
छुरी पर धार होती जा रही है
दोस्ती जब किसी से की जाए
दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए
मौत का ज़हर है फ़ज़ाओं में
अब कहाँ जा के साँस ली जाए
बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ
ये नदी कैसे पार की जाए
अगले वक़्तों के ज़ख़्म भरने लगे
आज फिर कोई भूल की जाए
लफ़्ज़ धरती पे सर पटकते हैं
गुम्बदों में सदा न दी जाए
कह दो इस अहद के बुज़ुर्गों से
ज़िंदगी की दुआ न दी जाए
बोतलें खोल के तो पी बरसों
आज दिल खोल कर ही पी जाए
सारी फ़ितरत तो नकाबों में छिपा रक्खी थी
सारी फ़ितरत तो नकाबों में छिपा रक्खी थी
सिर्फ तस्वीर उजालों में लगा रक्खी थी
हम दिया रख के चले आए हैं देखें क्या हो
उस दरीचे पे तो पहले से हवा रक्खी थी
मेरी गरदन पे थी तलवार मेरे दुश्मन की
मेरे बाजू पर मेरी माँ की दुआ रक्खी थी
शहर में रात मेरा ताज़ियती जलसा था
सब नमाज़ी थे मगर सबने लगा रक्खी थी
मेरी तकदीर में है, मेरे हवाले होंगे
मेरी तकदीर में है, मेरे हवाले होंगे।
वक्त के हाथ में गर ज़हर के प्याले होंगे।
मस्ज़िदें होंगी, कलीसा, न शिवाले होंगे।
इतने नज़दीक तेरे चाहने वाले होंगे।
जिन चरागों से ताअससुब का धुआँ उठता हो,
उन चरागों को बुझा दो तो उजाले होंगे।
मैं अगर वक्त का सुकरात भी बन जाऊँ तो क्या,
मेरे हिस्से में वही ज़हर के प्याले होंगे।
समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है
समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है
जहाज़ खुद नहीं चलते खुदा चलाता है
ये जा के मील के पत्थर पे कोई लिख आये
वो हम नहीं हैं, जिन्हें रास्ता चलाता है
वो पाँच वक़्त नज़र आता है नमाजों में
मगर सुना है कि शब को जुआ चलाता है
ये लोग पांव नहीं जेहन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है
हम अपने बूढे चिरागों पे खूब इतराए
और उसको भूल गए जो हवा चलाता है
सारे बादल हैं उसी के, वो अगर चाहे तो
सारे बादल हैं उसी के, वो अगर चाहे तो
मेरे तपते हुए सहरा को समंदर कर दे
धूप और छांव के मालिक मेरे बूढ़े सूरज
मेरे साये को मेरे क़द के बराबर कर दे
तेरे हाथों में है तलवार, मेरे लब पे दुआ
सूरमा आ मुझे मैदान के बाहर कर दे
इम्तिहां ज़र्फ़ का हो जाएगा साक़ी लेकिन
पहले हम सब के गिलासों में बराबर कर दे
है नमाज़ी कि शराबी, ये कोई शर्त नहीं
वो जिसे चाहे मुक़द्दर का सिकन्दर कर दे
गांव की बेटी की इज़्ज़त तो बचा लूं लेकिन
मुझे मुखिया न कहीं गांव के बाहर कर दे
दोस्त है…तो मेरा कहा भी मान
दोस्त है… तो मेरा कहा भी मान
मुझसे शिकवा भी कर, बुरा भी मान
दिल को सबसे बड़ा हरीफ़ समझ
और इसी संग को खुदा भी मान
मैं कभी सच भी बोल देता हूँ
गाहे गाहे, मेरा कहा भी मान
याद कर, देवताओं के अवतार
हम फ़कीरों का सिलसिला भी मान