post Contents ( Hindi.Shayri.Page)
- 1 पूर्व भाग 2
- 1.1 आज कितनी वासनामय यामिनी है
- 1.2 हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई
- 1.3 प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा
- 1.4 स्वप्न में तुम हों, तुम्हीं हो जागरण में
- 1.5 प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो
- 1.6 प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा
- 1.7 प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है
- 1.8 इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत
- 1.9 मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ
- 1.10 जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी
- 1.11 शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में
- 1.12 प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का
- 1.13 गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन
- 1.14 हिन्दी कविता- Hindi.Shayri.Page
मिलन यामिनी -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 2
पूर्व भाग 2
आज कितनी वासनामय यामिनी है
आज कितनी वासनामय यामिनी है!
दिन गया तो ले गया बातें पुरानी,
याद मुझको अब भी नहीं रातें पुरानी,
आज भी पहली निशा मनभावनी है;
आज कितनी वासनामय यामिनी है!
घूँट मधु का है, नहीं झोंका पवन का,
कुछ नहीं आज मन को पाता है आज तन का,
रात मेरे स्वप्न की अनुगामिनी है;
आज कितनी वासनामय यामिनी है!
यह काली का हास आता है किधर से,
यह कुसुम का श्वास जाता है किधर से,
हर लता-तरु में प्रणय की रागिनी है;
आज कितनी वासनामय यामिनी है!
दुग्ध-उज्जवल मोतियों से युक्त चादर,
जो बिछी नभ के पलँग पर आज उसपर
चाँद से लिपटी लजाती चाँदनी है;
आज कितनी वासनामय यामिनी है!
हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई
हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई।
आ उजेली रात कितनी बार भागी,
सो उजेली रात कितनी बार जागी,
पर छटा उसकी कभी ऐसी न छाई;
हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई।
चाँदनी तेरे बिना जलती रही है,
वह सदा संसार को छलती रही है,
आज ही अपनी तपन उसने मिटाई;
हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई।
आज तेरे हास में मैं भी नहाया,
आज अपना ताप मैंने भी मिटाया,
मुसकराया मैं, प्रकृति जब मुसकराई;
हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई।
ओ अँधेरे पाख, क्या मुझको डरता,
अब प्रणय की ज्योति के मैं गीत गाता,
प्राण में मेरे समाई यह जुन्हाई;
हास में तेरे नहाई यह जुन्हाई।
प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा
प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा।
कोकिला अपनी व्यथा जिससे जताए,
सुन पपीहा पीर अपनी भूल जाए,
वह करुण उदगार तुमको दे सकूंगा;
प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा।
प्राप्त मणि—कंचन नहीं मैंने किया है,
ध्यान तुमने कब वहाँ जाने दिया है,
आंसुओ का हार तुमको दे सकूंगा;
प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा।
सत्य ने छूने भला मुझको दिया कब,
किन्तु उसने तुष्ट ही किसको किया कब,
स्वप्न का संसार तुमको दे सकूँगा;
प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा।
फूल ने खिल मौन माली को दिया जो,
बीन ने स्वरकार को अर्पित किया जो,
मैं वही उपहार तुमको दे सकूंगा;
प्राण! केवल प्यार तुमको दे सकूंगा।
स्वप्न में तुम हों, तुम्हीं हो जागरण में
स्वप्न में तुम हो, तुम्हीं हो जागरण में।
कब उजाले में मुझे कुछ और भाया,
कब अंधेरे ने तुम्हें मुझसे छिपाया,
तुम निशा में औ’ तुम्हीं प्रात: किरण में;
स्वप्न में तुम हो तुम्हीं हो जागरण में।
जो कही मैंने तुम्हारी थी कहानी,
जो सुनी उसमें तुम्हीं तो थीं बखानी,
बात में तुम औ’ तुम्हीं वातावरण में;
स्वप्न में तुम हो तुम्हीं हो जागरण में।
ध्यान है केवल तुम्हारी ओर जाता,
ध्येय में मेरे नहीं कुछ और आता,
चित्त में तुम हो तुम्हीं हो चिंतवन में;
स्वप्न में तुम हो तुम्ही हो जागरण में।
रूप बनकर घूमता जो वह तुम्हीं हो,
राग बन कर गूंजता जो वह तुम्हीं हो,
तुम नयन में और तुम्हीं अंतःकरण में;
स्वप्न में तुम हों तुम्हीं हो जागरण में।
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब,
मैं समय के शाप से डरता नहीं अब,
आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
रात मेरी, रात का श्रृंगार मेरा,
आज आधे विश्व से अभिसार मेरा,
तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
वह सुरा के रूप से मोहे भला क्या,
वह सुधा के स्वाद से जाए छला क्या,
जो तुम्हारे होंठ का मधु विष पिए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
मृत-सजीवन था तुम्हारा तो परस ही,
पा गया मैं बाहु का बंधन सरस भी,
मैं अमर अब, मत कहो केवल जिए हो;
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो।
प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा
प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा।
ठीक है मैंने कभी देखा अँधेरा,
किन्तु अब तो हो गया फिर से सबेरा,
भाग्य-किरणों ने छुआ संसार मेरा;
प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा।
तप्त आँसू से कभी मुख म्लान होता,
किन्तु अब तो शीत जल में स्नान होता,
राग-रस-कण से घुला संसार मेरा,
प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा।
आह से मेरी कभी थे पत्र झुलसे,
किन्तु मेरी साँस पाकर आज हुलसे,
स्नेह-सौरभ से बसा संसार मेरा;
प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा।
एक दिन मुझमें हुई थी मूर्त जड़ता,
किन्तु बरबस आज मैं झरता, बिखरता,
है निछावर प्रेम पर संसार मेरा;
प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा।
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
जानता हूँ दूर है नगरी प्रिया की,
पर परीक्षा एक दिन होनी हिया की,
प्यार के पथ की थकन भी तो मधुर है;
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
आग ने मानी न बाधा शैल-वन की,
गल रही भुजपाश में दीवार तन की,
प्यार के दर पर दहन भी तो मधुर है;
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
साँस में उत्तप्त आँधी चल रही है,
किंतु मुझको आज मलयानिल यही है,
प्यार के शर की शरण भी तो मधुर है;
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
तृप्त क्या होगी उधर के रस कणों से,
खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से,
प्यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है;
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत।
की कमल ने सूर्य—किरणों की प्रतीक्षा,
ली कुमुद की चांद ने रातों परीक्षा,
इस लगन को प्राण, पागलपन कहो मत;
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत।
मेह तो प्रत्येक पावस में बरसता,
पर पपीहा आ रहा युग—युग तरसता,
प्यार का है, प्यास का क्रंदन कहो मत;
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत।
कूक कोयल पूछती किसका पता है,
वह बहारों की सदा से परिचिता है,
इस रटन को मौसमी गायन कहो मत;
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत।
विश्व की दो कामनाएँ थीं विचरतीं,
एक थी बस दूसरे की खोज करती,
इस मिलन को सिर्फ़ भुजबंधन कहो मत;
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत।
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।
मौन मुखरित हो गया, जय हो प्रणय की,
पर नहीं परितृप्त है तृष्णा हृदय की,
पा चुका स्वर, आज गायन खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।
तुम समर्पण बन भुजाओं में पड़ी हो,
उम्र इन उद्भ्रांत घड़ियों की बड़ी हो,
पा गया तन, आज मैं मन खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।
है अधर में रस, मुझे मदहोश कर दो,
किंतु मेरे प्राण में संतोष भर दो,
मधु मिला है, मैं अमृतकण खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।
जी उठा मैं, और जीना प्रिय बड़ा है,
सामने, पर, ढेर मुरदों का पड़ा,
पा गया जीवन, पर सजीवन खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।
जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी
जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी।
बाँह तुमने डाल दी ज्यों फूल माला,
संग में, पर, नाग का भी पाश डाला,
जानता गलहार हूँ, ज़ंजीर को भी;
जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी।
है अधर से कुछ नहीं कोमल कहीं पर,
किन्तु इनकी कोर से घायल जगत भर,
जानता हूँ पंखुरी, शमशीर को भी;
जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी।
कौन आया है सुरा का स्वाद लेने,
जोकि आया है हृदय का रक्त देने,
जानता मधुरस, गरल के तीर को भी;
जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी।
तीर पर जो उठ लहर मोती उगलती,
बीच में वह फाड़कर जबड़े निगलती,
जानता हूँ तट, उदधि गंभीर को भी;
जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी।
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
थी मुझे घेरे बनी जो कल निराशा,
आज आशंका बनी, कैसा तमाशा,
एक से हैं एक बढ़ कर पर चुभन में;
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
देखकर नीरस गगन रोया पपीहा,
मेह में भी तो कहीं खोया पपीहा,
फ़र्क पानी से नहीं गड़ता लगन में;
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
आम पर तो मंजरी पर मंजरी है,
दर्द से आवाज़ कोयल की भरी है,
कब समाए स्वप्न मधुॠतु के सेहन में;
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
फूल को ले चोंच में बुलबुल बिलखती,
एक अचरज से उसे दुनिया निरखती,
वह बदल पाई नहीं अब तक सुमन में;
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का।
प्यास होती तो सलिल में डूब जाती,
वासना मिटती न तो मुझको मिटाती,
पर नहीं अनुराग है मरता किसी का;
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का।
तुम मिलीं तो प्यार की कुछ पीर जानी,
और ही मशहूर दुनिया में कहानी,
दर्द कोई भी नहीं हरता किसी का;
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का।
पाँव बढ़ते, लक्ष्य उनके साथ बढ़ता,
और पल को भी नहीं यह क्रम ठहरता,
पाँव मंजिल पर नहीं पड़ता किसी का;
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का।
स्वप्न से उलझा हुआ रहता सदा मन,
एक ही इसका मुझे मालूम कारण,
विश्व सपना सच नहीं करता किसी का;
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का।
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
एक दुनिया है हृदय में, मानता हूँ,
वह घिरी तम से, इसे भी जानता हूँ,
छा रहा है किंतु बाहर भी तिमिर-घन,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
प्राण की लौ से तुझे जिस काल बारुँ,
और अपने कंठ पर तुझको सँवारूँ,
कह उठे संसार, आया ज्योति का क्षण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
दूर कर मुझमें भरी तू कालिमा जब,
फैल जाए विश्व में भी लालिमा तब,
जानता सीमा नहीं है अग्नि का कण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
जग विभामय न तो काली रात मेरी,
मैं विभामय तो नहीं जगती अँधेरी,
यह रहे विश्वास मेरा यह रहे प्रण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।