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माता -माखनलाल चतुर्वेदी-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Makahanlal Chaturvedi Mata Part 2
राष्ट्रीय झंडे की भेंट
माँ, रोवो मत, शीघ्र लौट घर आऊँगा, प्रस्थान करूँ
बाबा दो आशीष, पताका पर सब कुछ क़ुरबान करूँ।
लौटूँगा मैं देवी, हाथ में विजय पताका लाऊंगा।
कष्ट-प्रवास, जेल-जीवन की तुमको कथा सुनाऊँगा।
दौड़ पड़ो वीरो, माता ने संकट में की आज पुकार।
हार न होवे तेरे रहते मेरी पावन भूमि बिहार।
ले झण्डा चल पड़ा, प्राण का मोह छोड़ वह तरुण युवा।
उसकी गति पर अहा ! देश के अमरों को भी क्षोभ हुआ ।
सजा हुई, जंजीरें पहनीं, दुर्बल था, पर वार हुए,
गिट्टी, मोट, चक्कियाँ, कोल्हू हँस-हँस कर स्वीकार हुए।
‘मातृ-भूमि’ मैं तेरी मूरत देख सभी सह जाऊँगा।
दे लें दण्ड, आर्य-बालक हूँ, मस्तक नहीं झुकाऊँगा।
कष्ट बढ़े, दुर्बल देही थी असहनीय व्यवहार हुआ,
कैदी शैय्या पर पड़ने को गिर-पड़ कर लाचार हुआ,
सेनापति ने कहा, पताके ! अभी कौन बलिहार हुआ?
हुंकारा हरदेव, प्राण मैं दूँगा, लो तैयार हुआ।
“माफ़ी ले लो, अभी समय है,” अरे न यों अपमान करो,
झण्डे पर चढ़ने दो मुझको मातृभूमि का ध्यान करो!
प्यारी माँ, मेरे बाबा-हरदेवा अन्तर्धान हुआ।
रक्षक हा भगवान प्रिये, मैं झण्डे पर क़ुरबान हुआ।
जननी बिहार प्रणाम तुम्हें, तेरे गौरव का गान रहे,
मातृभूमि ! तेरे ध्वज की मेरे प्राणों से शान रहे !
क्यों सहसा चल पड़ा? ठहर, आ रही विजय तेरे द्वारे।
‘कंधे पर ले चलें’ या कि चल पड़ें पूज्य पथ में प्यारे ।
वह संकट पर झूल रहा है
कांटों ने संकेत दिया था शीघ्र पुष्प आने वाले हैं
सागर के वे ज्वार, तुम्हारे घर मोती लाने वाले हैं
पंखिनियाँ, प्रभु की ऊंचाई का, प्राणों में गान करेंगी;
आँसू की बूंदों से, साधें सिमिट-सिमिट पहिचान करेंगी ।
अग-जग में जो ढूंढ़ रहा हूँ वह सांसों पर फूल रहा है;
चाहा था नजरों पर झूलें वह संकट पर झूल रहा है।
एक हिलोर, लोरियाँ गाकर जाना था, गुमराह कर उठी,
किसने जाना था प्रहार की बेला उस पर वाह कर उठी !
जो तड़पन सा उठा, और आँसू सा बेकाबू भर आया,
जी से आँखों पर गालों पर अंगुलियों पर गीत सजाया;
जिसके जी से संकट खेले संकट से जो रह-रह खेला,
संकट के पुष्पक पर आई जिसकी पुण्य-साध की वेला!
जिसके पागलपन में एक प्रणयिनी वंदन की हलचल है,
जिसके पागलपन में, प्रतिभा के सौ-सौ हाथी का बल है,
जिसके पागलपन में, बलि पथ में भी मधुर ज्वार आता है,
अपने पागलपन में, बेदी पर शिर जो उतार आता है !
उसकी याद-याद पर, होती रहे याद कुरबान हमारी,
उसकी साँस-साँस में, कसकें–‘महासांस’ की ‘साँसें’ सारी ।
वह आँखों का मीठा धन यादों का मीठा मोहन प्यारा,
वह अरमानों का अपनापन जी की कसकों की ध्वनि-धारा ।
वह मेरे संकोचों के आँगन का शिशु, अनहोना सा धन,
वह मेरे मनसूवों की सीमा-रेखा का निर्मल यौवन,
वह बलि की बेदाग तरुण कलिका, प्रभु-तरु के चरणों झुक-झुक;
करती रहे युगों को, अपनी मृदु मरंद से युग-युग उत्सुक ।
(1926)
विदा
जाग रही थी,
चैन न लेती थी
मस्तानी आँखडियां,
पहरा देती थीं
पागल हो, ये—
पागलिनी पाँखडियाँ,
भौहें सावधान थीं
ओठों ने भूला
था मुसकाना,
आह न करती
डरती थी, पथ-
पाले कोई दीवाना !
सूरज की सौ-सौ किरणों में, विमल वायु के बहते,
कौन छीन ले गया मुझे अपने से, जागृत रहते ?
(1926)
मीर
दे प्यारे, अपनी आँखों में
आमेजान वहाँ पाऊँ,
विमल-धर्म-जयगढ़ पर
तेरे उसे समुद्र टकरा पाऊँ
भाव-पोत पर लाद, प्रेम के
पुष्प-पत्र पहुँचा पाऊँ;
अपनी क्षीण धार, उस निधि से
किसी प्रकार मिला पाऊँ;
उद्गम पर इस ओर खड़ा है
बल, विचार-गुणहीन फकीर
मजलिस सुनी देख, विकल है,
उसे मिला दे उसका मीर ।
उच्चत्व से पतन स्वीकार था !
मनहर, पतन स्वीकार था
मुझको, पतन स्वीकार था!
हे हिमशिखर !
तुमको लगा जो निम्न पथ,
मेरे लिए हर-द्वार था।
मुझको, पतन स्वीकार था!
मेरा उतरना, दौड़ना, पथ-पत्थरों का तोड़ना
कर हरी-हरी वसुंधरा उदंड अंग हिलोरना!
ये राह, खोवे दाह, गीता में प्रलय, तरला चाह,
मैं चल पड़ी, मेरे चरणों पर जगत भर लाचार था !
मुझको, पतन स्वीकार था!
प्रभु की तरल प्राणद झड़ी बरसी तुम्हारे घर वृथा,
तुमने बना पत्थर, बढ़ा दी कोटि तृषितों की व्यथा,
तुम देवताओं के लोक हो मैं कृषक की करुणा कथा ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
प्रभु ने बरसता वर दिया, तुमने उसे पत्थर किया,
माना कि पंकिलता बची माना कि जगमग जग किया,
तुमको चमक की चाह- मुझको, पंक-पथ-शृंगार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
तुम जगमगा कर रह गये अपनी विवशता कह गये,
लाचार दीन अधीन तृषितों के इरादे ढह गये,
मैं उच्चता को शत्रु- सबल जगत की मनुहार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
तुम रोकते हो धार को ? आश्रित जगत-व्यापार को ?
तुम प्रबल गति के शत्रु हो- क्यों रोकते हो ज्वार को ?
मैं चली मूर्छित छोड़; मेरा, प्रलय-घन हुंकार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
तुम विमल ऊँचों की कथा, मैं करुण दलितों की व्यथा,
तुम कर्महीना ‘देवता’ मैं गतिमयी, बलि की प्रथा;
जड़ उच्चता में, जन्म मम विद्रोह का अवतार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
हाँ ठीक, जग तुम पर चढ़े, यह उचित, नर तुम तक बढ़े;
पर यह तुम्हारी उच्चता क्यों शाप मानव पर मढ़े ?
तरलत्व को तरलत्व दूं मेरा कठिन निर्धार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
रोती रही भू प्यास से, हरिया उठूं, इस आस से,
वह बनी रेगिस्तान ‘शीतल-उच्चता’ के त्रास से !
मेरा ‘भगीरथ’ क्रान्तिमय विद्रोह सा उपचार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
(1927)