मरियम – Tehzeeb Hafi
मरियम
मैं आईनों से गुरेज करते हुए
पहाड़ों की कोख में सांस लेने वाली उदास झीलों में अपने चेहरे का अक्स देखूं तो सोचता हूं
की मुझ में ऐसा भी क्या है मरियम
तुम्हारी बेसाख्ता मोहब्बत जमीं पे फैले हुए समंदर की वो सतो से भी मावरा है
मोहब्बतों के समंदरों में बस एक बहिरा-ए-हिज़्र है जो बुरा है मरियम
खला-नवरदो को जो सितारे मुआवजे में मिले थे
वो उनकी रोशनी में ये सोचते हैं
कि वक्त ही तो खुदा है मरियम
और इस ताल्लुक की गठरियो में
रुकी हुई साहतो से हटकर
मेरे लिए और क्या है मरियम
अभी बहुत वक्त है कि हम वक्त दे जरा एक दूसरे को
मगर हम इक साथ रहकर भी ख़ुश न रह सके तो मुआफ करना
कि मैंने बचपन ही दुख की दहलीज पर गुजारा
मैं उन चिरागों का दुख हूं जिनकी लवे शब-ए-इंतजार में बुझ गई
मगर उनसे उठने वाला धुआ ज़मान-ओ-मकान में फैला हुआ है अब तक
मैं कोसारो और उनके जिस्मों से बहने वाली उन आबशारों का दुख हूं जिनको
जमीं के चेहरों पर रेंगते रेंगते ज़माने गुजर गए हैं
जो लोग दिल से उतर गए हैं
किताबें आंखों पर रख के सोए थे मर गए हैं
मैं उनका दुख हूं
जो जिस्म ख़ुद लज्जित से उकता के आईनों की तसल्लीओ में पले बढ़े हैं
मैं उनका दुख हूं
मैं घर से भागे हुओ का दुख हूं
मैं रात जागे हुओ का दुख हूं
मैं साहिलों से बंधी हुई कश्तियों का दुख हूं
मैं लापता लड़कियों का दुख हूं
खुली हुए खिड़कियों का दुख हूं
मीटी हुई तख्तियां का दुख हूं
थके हुए बादलों का दुख हूं
जले हुए जंगलों का दुख हूं
जो खुल कर बरसी नहीं है, मैं उस घटा का दुख हूं
जमीं का दुख हूं
खुदा का दुख हूं
बला का दुख हूं
जो शाख सावन में फूटती है वो शाख तुम हो
जो पिंग बारिश के बाद बन बन के टूटती है वो पिंग तुम हो
तुम्हारे होठों से साहतो ने समाअतो का सबक लिया है
तुम्हारी ही सा के संदली से समुंदरों ने नमक लिया है
तुम्हारा मेरा मुआमला ही जुदा है मरियम
तुम्हें तो सब कुछ पता है मरियम।
Tehzeeb Hafi
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