मन के घाव नये न ये तेवरी-रमेशराज -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Rameshraj Man Ke Ghav Naye Na Yeh Part 2
गह रे! मेरा हाथ, गहरे तम के बीच तू
नव प्रकाश लाना हमें, मेंटेंगे अंधियार। 52
झट गुण्डों के हाथ, नेता ने ता से गहे
बूथ-कैप्चरिंग हो सके छल-बल से हर बार। 53
लिये कैमरे हाथ, आज पूछते कै मरे?
कल के हत्याकांड के जो गुण्डे सरदार। 54
विजय-पराजय हाथ, लगे कर्म-दुष्कर्म से
जनमे जय के साथ में एक न इस संसार। 55
लालायित इन्सान, ‘धन को ला-ला इत’ कहे
धन-लिप्सा का आजकल सब पर भूत सवार। 56
हर रिश्ता अन्जान, उसके दर से हो गया
जिस दर से उसने किया अहंकार-व्यवहार। 57
बिन कद बढ़े न मान, अगर कद रहै, कदर है
जो दधीचि-सा, कर्ण-सा उसका ही सत्कार। 58
नतमस्तक इन्सान, नगरवधू के सामने
घर की केसर छोड़कर कुलटा के सर प्यार। 59
हम दोनों ने कीन, अजब संग्रह संग रह
केवल दोनों ने चुने खार, खार-दर-खार। 60
झट आँखें नम कीन, मिली नहीं नमकीन तो
लघु बिटिया ने बाप का लखा न दुःख का भार। 61
खल की मीठी बात, सज्जन को खलती सदा
उसी बात का दुष्टजन करते है सत्कार। 62
झट गोरी का गात, दावत में दाबत कई
नगरवधू का कर रहे यूँ स्वागत-सत्कार। 63
मची खलबली रात, लखि थाने में खल बली
भारी-भरकम पुलिस का काँप उठा दरबार। 64
स्याही देगी नूर, स्याही अगर डराय तो
घने तिमिर से जूझ तू कलम हाथ ले यार। 65
बन्धु घूर को घूर, कहो न केवल गन्दगी
यही खाद का काम भी देता आखिरकार। 66
देता इत नासूर, वो बस इतना सूर है
लड़ै न कबहू धींग से, रहै दूर ही यार। 67
अब को रहै सहास, आँसू आँखन कोर है
धीरे-धीरे बन गया दुःख जीवन का सार। 68
सत् ता के नहिं पास, जो सत्ता के पास है
हैं नेता के अब महज झूठ भरे उद्गार। 69
नत अर्जुन के पास, जब तक रण का पास है
तब तक यह गुंजित करे नभ में धनु-टंकार। 70
नये न ये एहसास, मन में घाव नये न ये
जीवन बीता झेलते दुःखदर्दों के वार। 71
जो खुदगर्ज अ-नेक, ऐसे मित्र अनेक हैं
धन को लखि वन्दन करें, माया लखि सत्कार। 72
को रे! मन नहिं मैल, कोरे-कोरे देखकर,
सबको ही इस जगत में है नोटों से प्यार। 73
जमा बड़ा नहिं एक, भारी जहाँ जमाबड़ा
नेता सहता कब मिला गोली की बौछार। 74
चलि उठि करि तू युद्ध, पड़ौ रहैगो भूमि का?
यह कायर की भूमिका करे क्रान्ति बेकार। 75
अब कमान ले बुद्ध, तू यश-शौर्य कमा न ले
कायरता को त्यागना होगा रे इस बार। 76
चलो करो तुम युद्ध, आज सामना दुष्ट से
नर हो, न रहो खौफ में, हो न और लाचार। 77
जो हो संत स्वभाव, अंतर के अंतर घटें
धन माया मद मोह मन अलगावों का सार। 78
माखन-शहद-सुभाव, भीतर भी तर ही मिलें
इनके आस्वादन-समय बढ़े चाव हर बार। 79
कुछ हसीन-से ख्वाब, कुछ खुशियाँ-रंगीनियाँ
रखिए का जी के लिये मदिरा खुशबूदार। 80
पल-पल घेरें खूब, खल निर्बल को आजकल
दिखें लुटेरे हर तरफ सत्य सत्य लुटे रे यार! 81
सह मत जता विरोध अनाचार या पाप से
अरे वधिक-जल्लाद से क्यों तू सहमत यार। 82
झट रच डाले फूल, पेड़ बेकली क्यों रहें
जहाँ अहम् की बेकली वे बन बैठे खार। 83
चलें न दामन थाम, जेबहि दाम न होय तो
बिन माया के मित्रा अब लोगों को बेकार। 84
मसलन.. मसल न फूल, क्यों करता ये काम तू
जग को अपना ही समझ, रह जग के अनुसार। 85
तब समान तर नैन, मन जो हुए समान्तर
दोनों को अलगाव ने दिया दुखों का भार। 86
काले-काले रंग, मन को काला ही करें
धन-माया-मद-मोह तू का ले रे मन यार। 87
जो मन हलका होय, जीवन का हल का मिले?
दुःख ही क्या अब तो दिये सुख ने कष्ट अपार। 88
‘ना रे! ना रे! बोल, अबलाएँ मिन्नत करें
नारे खोलन में सुनें गुण्डे नहीं पुकार। 89
जिसको कहें शराब, बोतल में वो तल नहीं
माँग रह हैं भीख-सी अहले-तलब गँवार। 90
शुभ है हत्याकाण्ड, मत हो हत या काण्ड में
बिन संशय अर्जुन करो पापमुक्त संसार। 91
खो दी गयी सुरीति, खाई-सी खोदी गयी
घर के जब रिश्ते बँटे थर-थर काँपा प्यार। 92
प्रीति भरे संदेश, कर हमला हम ला सके
अपहृत खुशियों को छुड़ा लाये हम इस बार। 93
बस ताने बन्दूक, नेता उलटा हो तुरत
भाषण के हो जायँ जब अस्त्र-शस्त्र बेकार। 94
सभी हुए खामोश, तुरत ठहाके गुम हुए
विषयों में विष यों घुला चुप सब आखिरकार। 95
यहाँ दोश-बर-दोश, अब कोई मिलता नहीं,
मन चंचल-सा बुत हुआ, साबुत रहा न प्यार। 96
चलें जाम पर जाम ‘रम्भा’ सँग रम भा रही
बदचलनी के दौर में लोग हुए मक्कार। 97
सूपनखा के संग, अब का लक्ष्मण खुश बहुत
अरी उर्मिला उर मिला रामा रहे पुकार। 98
एक बसी आगोश, एक उर्वशी उर बसी
कबिरा अब तो साधु का चकलाघर संसार। 99
नगरबधू की बात, आज हीर-सी, ही रसी,
रांझा लूटे मस्तियाँ कोठे पर मक्कार। 100
पापी सत्ता-ईश, अब तो सत्ताईस हैं
होते अत्याचार अति, जनता है लाचार। 101
उधर बन्द ना जीभ, इधर वन्दना मिन्नतें,
पीट रहे हैं निबल को बलशाली कर वार। 102
और न गरजें आप बन्धु निबल के सामने
पाप आपका आ पका कहे तेवरीकार। 103