बोस्की-२-रात पश्मीने की-गुलज़ार-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Gulzar
नाराज़ है मुझसे बोस्की शायद
जिस्म का एक अंग चुप चुप सा है
सूजे से लगते है पांव
सोच में एक भंवर की आँख है
घूम घूम कर देख रही है
बोस्की,सूरज का टुकड़ा है
मेरे खून में रात और दिन घुलता रहता है
वह क्या जाने,जब वो रूठे
मेरी रगों में खून की गर्दिश मद्धम पड़ने लगती है