बेटी-मुनव्वर राना -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Munnawar Rana
घरों में यूँ सयानी बेटियाँ बेचैन रहती हैं
कि जैसे साहिलों पर कश्तियाँ बेचैन रहती हैं
ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती जुलती है
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है
रो रहे थे सब तो मैं भी फूट कर रोने लगा
वरना मुझको बेटियों की रुख़सती अच्छी लगी
बड़ी होने को हैं ये मूरतें आँगन में मिट्टी की
बहुत से काम बाक़ी हैं सँभाला ले लिया जाये
तो फिर जाकर कहीँ माँ_बाप को कुछ चैन पड़ता है
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है
ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया
उड़ गईं आँगन से चिड़ियाँ घर अकेला हो गया
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