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बीजुरी काजल आँज रही -माखनलाल चतुर्वेदी-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Makahanlal Chaturvedi Poetry Bijuri Kajal Aanj Rahi Part 1
बीजुरी काजल आँज रही-गीत
गगन की रानी के छुप-छुप बीजुरी काजल आँज रही
बादलों के घिर आने से प्रात भी अच्छी सांझ रही ।
सांवली और कुआँरी-सी मगन माटी ने खोले केश
गोद पर लहर-लहर आये विविध रंगों के हिलते वेश ।
छू उठी, छुपा हृदय गुस्ताख, तुम्हारी निखरी-सी पहचान
और वे मृग-तृष्णा हो गये तुम्हारी यादों के मेहमान ।
मधुर निर्यात और आयात, साधते हो दोनों के खेल
छनक में निकल चले-से दूर पलकों में पल-पल बढ़ता मेल ।
तुम्हारे खो जाने में दूख, तुम्हारे पा जाने में आज-
भूमि का मिल जाता है छोर, गगन का मिल जाता है राज ।
तुम्हारी टीसें हबस रहीं, बेलि पर सपने साज रहीं
गगन की रानी चुप-चुप बीजुरी काजल आँज रही ।
(जुलाई 1958)
चोरल
1.
चढ़ चलो कि यह धारों की शोभा न्यारी
सागौन-वनश्री, सावन के बहते स्वर,
पाषाणों पर पंखे झल-झल दोलित-सी
नभ से बातें करती बैठी अपने घर !
संध्या हो आयी तारे पहरा देते
इसके अन्तर को छविधर घहरा देते!
ये बढ़ी लाल चट्ठान नुकीली ऐसे
गिरिवर अविन्ध्य को विन्ध्य कहें भी कैसे ।
‘चोरल’ की दौड़ें, क्या छू लें, क्या छोड़ें
इस राजमार्ग पर अपने वस्त्र निचोड़ें !
पगडण्डी पद-मखमलिया है, बाँकी है
क्या प्रकृति-वधु, स्वर भरे इधर झांकी है !
डालों पर, पंछी जैसे कुछ गाने में
आ रहा मजा, पथ भूल-भूल जाने में।
ऊँचे बट देखें या नीचे की दूबें
भूले भटके भी यहाँ न कोई ऊबें!
मलयज मन्दारों उलझ छिपा-छी खेलें
बन्दनवारें बन उठीं वनों की बेलें !
पंचम के स्वर, उड़ता संगीत संभाले
सारस दल लांघे वन्य-प्रान्त उजियाले ।
मानो नभ के आँगन में खेल बिछाकर ।
गा रहे गीत, उड़ हौले से अकुलाकर
क्या महफिल आज लगी, चिड़ियों को देखा ?
डालों पर अपनी हरी खींच कर रेखा
चिलबिल-चिलबिल बस चैन कहाँ, कैसे हो,
फुदक साँस, उड़ चली, तुम्हारी जग हो !
2.
चोरल है ।
ग्वाले-ग्वालिन हैं गायें हैं
क्या उन्हें देखने मेघ खूब छाये हैं ?
इस वन-रानी पर गगन द्रवित हो आया
हँस-हँस कर शिर पर इन्द्र-धनुष पहनाया
स्तन से मीठी, यह मस्त चाल गरबीली
हंसी, शुभदा, श्यामला, लाल यह पीली ।
पूछें इन पर बन चंवर कि डोल रही हैं
राजत्व प्रकृति इन पर रंग ढोल रही है ।
वह आम्र-डाल पर कोयल कूक उठी है
मधुरायी वन-वैभव लख विवश लुटी है ।
जब गायें लगतीं संध्या में ग्वालिन-घर
जब तालें दे वे झरना, बूंदों के स्वर,
अंगुलियों की परियाँ क्षण आती-जातीं
मटकियों दूध, अपने घर वे पा जातीं ।
छोटे से ग्वाल-किशोर यशोदा-मां के
ये माँग उठे हैं दूध गीत गा-गा के ।
छवि निरख-निरख कह उठी विन्ध्य वन-रानी
तुम “दूधों न्हायो, पूतों फलो” भवानी !
3.
तुम संभल-संभल उतरो प्रिय पगडण्डी से
कुछ इधर-उधर जो किया कि ढुलक पड़ोगे !
यह प्रकृति-कृति या अगम मुक्ति का घर है
यह नया-नया है जितना और बढ़ोगे !
तट चोरल के नटिनी-सी तटिनी जाती
यह राग कौन-सा कुशल निम्नगा गाती ?
ऊंचे चढ़ाव, नीचे उतार, दृग मीचे
गिरि से गिरकर गा उठी गोद को सींचे !
चट्टानें चुभ आयीं कोमल अंगों में
आ गयी विकृति, विधि रचे विविध रंगों में ।
गिर पड़ी गगन से, रोती है, समझा ले
इसकी माँ से कह दो चट गोद उठा ले ।
यह पत्थर की चट्टानों पर अलबेला
विधि-हरियाली पर लगा रंग का मेला
होनी बन, अनहोनी छवि ताक रहा है
फूलों की आँखों निज कृति झांक रहा है।
फूलों के मुकुट लिये डालों की परियां
श्रृंगार कर रहीं हिलती-सी वल्लरियां !
मालव का कृषक संभाले कांधे पर हल
अनुभव करता खेतों पर बैलों का बल ।
किस अजब ठाठ से जाता है मस्ताना
वैभव इसके श्रम पर बलि है, अब जाना ।
छबियों पर छबियाँ बना रहा बनवारी
जब तरल करों से बाँट रहा बून्दें अपार
हिल रहा है हवा के झोंकों पर जो बार-बार
जो खींच रसा के कीचड़ से रस-रूप-ज्वार
पत्तों, डालों, फूलों को बाँट रहा उदार !
तब कौन कि जो उसकी लहरों को टोके
ऊँचे उठते हरिताभ तत्व को रोके
बूंदें नीचे को झरझर गिरती सहस बार
तरु ऊगे, उठे, बढ़े, निकल आये हजार
किरनें इन पर झुक-झुक कर हेरा-फेरी
सौन्दर्य-कोष देने में करें न देरी ।
ऊंचे उठतों की कौन करे बदनामी ?
चढ़ने-बढ़ने में ये हैं अपने स्वामी ।
फूलों से देखो कीचड़ का यह नाता
किस ढब गढ़ता है स्वाद, सुगन्ध विधाता !
चढ़ कर गिरते हैं मातृ-भूमि की गोद
है कौन कि छीने इनका उठता मोद ।
लीला-ललाम, यों सुबह-शाम पर वारी
कुंजों को गढ़ता, देखो कुंजबिहारी !
यह फूलों और फलों को दुलार रहा है
तुमको मौन उन्मत्त पुकार रहा है ।
यों लूट-लूट प्रकृति की महिमा सारी
छवियों पर छवियाँ बना रहा बनवारी
दुनिया बांढ़ों से इसे पुकार रही है
झरने की वानी चरन पखार रही है ।
रातों के तारे नित पहरा देते हैं
दिन में दिनमणि यौवन गहरा देते हैं ।।
(मई 1958)
तारों के हीरे गुमे
तारों के हीरे गुमे मेघ के घर से
जब फेंक चुके सर्वस्व तभी तुम बरसे !
खो बैठे चांदनियों-सी उजली रातें
जब तम करता हँस कर प्रकाश से बातें ।
जब उषा कर रही हाथ जोड़ सन्ध्या-सी
जब रात लग उठी विधवा-सी, बन्ध्या-सी ।
सपनों-सा स्वर पर पानी उतर रहा था
सन्ध्या को वैभव ऊगा सँवर रहा था।
मस्ती उतरी थी, भू पर हो दीवानी
जब बरस उठी थी रिमझिम एक कहानी ।
डालों फूला ‘छू जाना’ झूल रहा था
तरुयों को पहना स्वयं दुकूल रहा था ।
रानी-सी मलयज मन्द-मन्द झरती थी
वह कोटि-कोटि कलियां जीती-मरती थीं ।
चाँदी के डोले, चाँदी के ढीमर थे
चाँदी के राजकुमार मजे अम्बर थे।
चाँदी उतरी थी तम पर राज रही थी
चाँदी के घर चाँदी की लाज रही थी।
तम तरुओं के नीचे बारी-बारी
छुपता-मिलता-सा, बना आज से सारी—
गति का रथ उसकी रुका, बेड़ियाँ पहने
बन्दी बैठा था, पहन जेल के गहने !
दौड़ी आती जल-ज्योति अलकनन्दा-सी
तम के झुरमुट, वृन्दावन की वृन्दा-सी ।
सोने के घर से नीलम बरस रहे थे
चाँदी से ढल-ढल कर तम बरस रहे थे ।
(अगस्त 1958)