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बांग्ला कविता(अनुवाद हिन्दी में) -शंख घोष -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankha Ghosh Part 16
चाहत का तूफ़ान
इस छोर से उस छोर तक घूमती नि:शब्द निर्जनता में
अन्धेरी शाम की तेज़ अकेली हवा में
तुम उठाती हो अपना
बादलों-सा ठण्डा, चान्द की तरह पाण्डुर
नीरक्त, सफ़ेद चेहरा
विपुल आकाश की ओर।
दूर देस में मैं काँपता हूँ
चाहत की असह्य वेदना से —
तुम्हारे श्वेत पाषाण-सदृश मुख को घेरे
काँपती हैं —
आर्त प्रार्थना में उठी हज़ार उँगलियों की तरह —
बालों की पतली लटें, बिखरी अलकें
अन्धेरी हवा में।
घिर आए बादल अपने ही भार से आकाश के एक कोने में जमा हो गए —
उस पुंज के बीच बार-बार ज़ोर से कौंधती है
कामना की तड़ित् ;
प्रचण्ड आवेग से फेनिल होता प्रेम का अबाध्य प्रवाह
अन्धकार के सीमाहीन अन्तराल और
विचारमग्न, स्थिर धरित्री की घन कान्ति को
अस्थिर करता है।
तुम उठाती हो अपना
बादलों-सा ठण्डा, चान्द की तरह पाण्डुर मुख,
रोते-रोते थककर चुप हुई धरती के उठते-गिरते स्तन,
प्रार्थना में क्लान्त, विकल, दुर्बल, दीर्घ प्रत्याशा के हाथ,
विपुल, विक्षुब्ध आकाश की ओर उठे —
और सबको घेरकर फैला अन्धकार, तुम्हारे विरल केश,
असीम, एकाकी हवा में असंख्य स्वरों वाले वाद्य।
धीरे-धीरे सृष्टि प्रस्तुत होती है, मानो
मर्मभेदी एक मधुर मुहूर्त में दु:सह वज्र बनकर टूटता है उसकी चाहत का बादल
तुम्हारे उद्धत, उत्सुक, प्रसारित, विदारित वक्ष के मध्य
मिलन की पूर्ण प्रेमाकुलता के साथ ―
उसके बाद भीगी, अस्तव्यस्त, भग्न पृथ्वी की गन्दगी साफ़ कर
आता है सुन्दर, शीतल, ममता-भरा विहान
बाउल
कहा था तुम्हें लेकर जाऊँगा दूर के दूसरे देश में
सोचता हूँ वह बात
दौड़ती रहती है दूर-दूर तक जीवन की वह सातों माया
सोचता हूँ वह बात
तकती रहती है पृथ्वी, तुमसे हार मानकर वह
बचेगी कैसे !
जहाँ भी जाओ अतृप्ति और तृप्ति दोनों चलती है जोड़े में
बाहर भी, अन्दर भी.
उदासीन नहीं कुछ से — समझ सकता हूँ तुम्हारे सीने में
है कुछ और,
यंत्रणा खोलती है हृदय को अपनी हर गिरह में, उस खुलने का
है अर्थ कुछ और।
नींद में देखता हूँ प्रकाश के पूर्ण-कुसुम को नीलांशुक में
नहीं बाँध सकता है ये
जगते ही देखता हूँ कितनी विचित्र बात है, एक भी खरोंच नहीं लगी
उसके प्रेम की देह पर
कहा था तुम्हें मैं फैला दूँगा दूर हवा में
सोचता हूँ वह बात
तुम्हारे सीने के अन्धकार में बजा है सुख मदमत्त हाथों से
सोचता हूँ वह बात।
त्रिताल
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ़
जड़ से कसकर पकड़ने के सिवाय
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है, सिर्फ़
सीने पर कुठार सहन करने के सिवाय
पाताल का मुख अचानक खुल जाने की स्थिति में
दोनों ओर हाथ फैलाने के सिवाय
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है,
इस शून्यता को भरने के सिवाय।
श्मशान से फेंक देता है श्मशान
तुम्हारे ही शरीर को टुकड़ों में
दुः समय तब तुम जानते हो
ज्वाला नहीं, जीवन बुनता है जरी।
तुम्हारा कोई धर्म नहीं है उस वक़्त
प्रहर जुड़ा त्रिताल सिर्फ गुँथा
मद्य पीकर तो मत्त होते सब
सिर्फ़ कवि ही होता है अपने दम पर मत्त्त।
जल
क्या जल समझता है तुम्हारी किसी व्यथा को?
फिर क्यों, फिर क्यों
जाओगे तुम जल में क्यों छोड़ गहन की सजलता को?
क्या जल तुम्हारे सीने में देता है दर्द?
फिर क्यों, फिर क्यों
क्यों छोड़ जाना चाहते हो दिन रात का जलभार?