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फिजी-किसान -मैथिलीशरण गुप्त -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Maithilisharan Gupt Kisan
फिजी
अधम आरकाटी कहता था फिजी स्वर्ग है भूपर;
नभ के नीचे रह कर भी वह पहुँच गया है ऊपर।
मैं कहता हूँ फिजी स्वर्ग है तो फिर नरक कहाँ है,
नरक कहीं हो किन्तु नरक से बढ़कर दशा यहाँ है ॥
दया भले ही न हो नरक में न्याय किया जाता है,
आता है हतभाग्य यहाँ जो दण्ड मात्र पाता है।
यम के दूत निरपराधों पर कब प्रहार करते हैं,
यहाँ निष्ठुरों के हाथों हम बिना मौत मरते हैं ॥2॥
ढोर कसाई खाने में बस भूख प्यास सहते हैं,
जोते कभी नहीं जाते हैं बँधे मात्र रहते हैं।
नियमबद्ध हम अधपेटों को खेत गोड़ने पड़ते,
अवधि पूर्ण होने के पहले प्राण छोड़ने पड़ते ॥3॥
गीध मरी लोथें खाते हैं ओवरसियर निरन्तर,
हाथ चलाते यहाँ हमारी जीती अबलाओं पर।
भारतीय कुलियों का मानों फिजी श्मशान हुआ है
हाय! मनुजता का मनुजों से यह अपमान हुआ है ॥4॥
भूमि राम जाने किसकी है, श्रम है यहाँ हमारा,
किन्तु विदेशी व्यापारी ही लाभ उठाते सारा।
जड़ यन्त्रों को भी तैलादिक भक्ष्य दिया जाता है,
अर्द्धाशन में हम से दूना काम लिया जाता है ॥5॥
हाथों में फोले पड़ जावें पर धरती को गोड़ो,
रोगी रहो, किन्तु जीते जी कार्य अपूर्ण न छोड़ो।
ये गन्नों के खेत खड़े हैं इनसे खाँड़ बनेगी,
उससे तुम्हीं भारतीयों की मीठी भंग छनेगी ॥6॥
भारतवासी बन्धु हमारे! तुम यह खाँड़ न लेना,
लज्जा से यदि न हो घृणा से इसे न मुँह में देना।
हम स्वदेशियों के शोणित में यह शर्करा सनी है,
हाय! हड्डियाँ पिसी हमारी तब यह यहाँ बनी है ॥7॥
वह देखो, किसकी ठोकर से किसकी तिल्ली टूटी,
धरती लाल हुई शोणित से हाय! खोपड़ी फूटी।
अपनी फाँसी आप कौन वह लगा रहा है देखो,
जीवन रहते विवश मृत्यु को जगा रहा है देखो ॥8॥
देखो, दूर खेत में है वह कौन दुःखिनी नारी,
पड़ी पापियों के पाले है वह अबला बेचारी।
देखो, कौन दौड़ कर सहसा कूद पड़ी वह जल में,
पाप जगत से पिण्ड छुड़ा कर डूबी आप अतल में ॥9॥
न्यायदेवता के मन्दिर में देखो, वह अभियोगी,
हो उलटा अभियुक्त आप ही हुआ दण्ड का भोगी।
प्रतिवादी वादी बन बैठा, वह ठहरा अधिकारी,
साक्षी कहाँ, कहाँ है साक्षी, है पूरी लाचारी ॥10॥
डूबे हुए पसीने में वे कौन आ रहे देखो,
आँखों में भी स्वेद बिन्दु या अश्रु छा रहे देखो।
परवश होकर दस दस घण्टे हैं वे खेत निराते,
साँझ हुए पर गिरते पड़ते डेरे पर हैं आते ॥11॥
दस नर पीछे तीन नारियाँ थकी और शंकित-सी,
देखो, लौट रही हैं कैसी पत्थर में अंकित-सी।
बुझे हुए दीपक-से मन हैं, नहीं निकलती वाणी;
हा भगवान! मनुज हैं ये भी अथवा गूंगे प्राणी ॥12॥
सुनो, फिजीवासी असभ्य वे हम से क्या कहते हैं-
क्या तुम जैसे ही जघन्य जन भारत में रहते हैं?
धिक् है उसको जिसके सुत यों घोर अनादर पावें,
पुरुष कहा कर पशुओं से भी बढ़कर समझे जावें ॥3॥
हे भारत के वीर वकीलो, हम क्या उत्तर देवें,
अथवा यह अपमान देश का चुप रह कर सह लेवें
अब भी गाँधी जैसे सुत की जननी भारतमाता,
तुझ से यह दुर्दृश्य निरन्तर कैसे देखा जाता ॥14॥
दे कर अन्न दूसरों का भी माँ, तू पालन करती,
पर तेरी सन्तति उसके हित परदेशों में मरती।
मरना ही है तो हे जननी! घर में ही न मरें क्यों,
परवश हो कर यहाँ आप ही अपना घात करें क्यों ॥15॥
रख न सके हम पुत्रों को ही होकर भी जो धरणी,
भरण न जो कर सके हमारा हो कर भी भवभरणी।
तो भगवान, भारतीयों की तनिक तुम्हीं सुध लीजो,
वहीं नरक है, मरने को ही जग में जन्म न दीजो ॥16॥
इसके आगे और क्या कहूँ जो कुछ मुझ पर बीती,
सब सह कर भी मुझे देखकर कुलवन्ती थी जीती।
मैं भी उसे देख जीता था मिथ्या है यह कहना,
ऐसा होता तो स्मृति-दंशन क्यों पड़ता यह सहना? ॥17॥
बस यह बात समाप्त करूँगा वही हाल कह कर मैं,
खोद रहा था खेत एक दिन ज्वराक्रान्त रह कर मैं।
गेंती का उठना गिरना थी गिनती मेरी साँसें,
हाथों में लिखती जाती थी उसे बेंट की आँसें ॥18॥
दिनकर सिर माथे पर थे जो मुझे निहार रहे थे,
रोम रोम से पाद्य प्राप्त कर स्वपद पखार रहे थे।
बड़ी दूर सुन पड़ा अचानक मुझको कुछ चिल्लाना,
चिर-परिचित कुलवन्ती का स्वर कानों ने पहचाना ॥19॥
हृदय धड़कने लगा वेग से शेष रहा बस फटना,
याद आ गयी वह भारत की नदी तीर की घटना।
जिसे तेंदुवे के पंजे से उस दिन बचा लिया था,
बचा सकोगे आज न उसको कहता यही हिया था ॥20॥
शीघ्र दौड़ कर जा कर मैंने कुलवन्ती को देखा,
भूपर पड़ी हुई थी मेरे नभ की हिमकर लेखा।
मुँह से बहते हुए रुधिर से अंचल लाल हुआ था,
हा! स्वधर्म रखने में उसका ऐसा हाल हुआ था ॥21॥
पूछा मैंने-“यह क्या है” वह बोली “अन्त समय है,
किन्तु आ गये तुम अब मुझको नहीं मृत्यु का भय है।
तुम्हें देख कर काल रूप वह ओवरसियर गया है,
यह चिर शान्ति आ रही है अब यह भी दैव दया है ॥22॥
प्रकटित करके पाप-वासना वह दुःशील सुरापी,
लोभ और भय दे कर मुझको लगा छेड़ने पापी,
किन्तु विफल होकर फिर उसने यह दुर्गति की मेरी,
सुखी रहो तुम सदा सर्वदा, मुझे नहीं अब देरी ॥23॥
यही शोक है, दे न सकी मैं अंक मयंक तुम्हारा,
रहा पेट ही में वह मेरे चला नहीं कुछ चारा।
लो बस अब मैं चली सदा को मन में मत घबराना,
मेरे फूल जा सको तुम तो, भारत को ले जाना” ॥24॥
हाय! आज भी उन बातों से फटती यह छाती है,
कुलवन्ती, कुलवन्ती मुझको छोड़ कहाँ जाती है।
तनिक ठहर, मैं भी चलता हूँ, चली न जाना तौलों,
तेरे पीड़क के शोणित से प्यास बुझा लूँ जौलों ॥25॥
बड़े कष्ट से फिर वह बोली-“नादानी रहने दो,
मेरा ही शोणित नृशंस के आस पास बहने दो।
डूब जायगा वह उसमें ही तैर नहीं पावेगा,
सती गर्भिणी अबला का वध वृथा नहीं जावेगा ॥26॥
यही नहीं यह कुली-प्रथा भी उसमें बह जावेगी,
भावी भारत में बस इसकी स्मृति ही रह जावेगी।
रहे न वह अपमान स्मृति भी प्रभु से यही विनय है,
पूर्व निरादर भी मानी को बन जाता विषमय है ॥27॥
शासक जब इन सब बातों का पूर्ण पता पा लेंगे,
तब अपना कर्त्तव्य आप ही वे अवश्य पा लेंगे।
मेरा मन कहता है कोई काम तुम्हें है करना,
है मेरी सौगन्ध तुम्हें तुम इस प्रकार मत मरना ॥28॥
हे भगवान! तुम्हारे सब दुख मैं ही लेती जाऊँ,
और जन्म-जन्मान्तर में भी तुम को ही फिर पाऊँ।”
इसके बाद याद है, मैंने राम राम सुन पाया,
उसी नाम को गिरते गिरते मैंने फिर दुहराया ॥29॥