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प्रभाती -सोहन लाल द्विवेदी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Sohan Lal Dwivedi Part 4
कणिका
उदय हुआ जीवन में ऐसे
परवशता का प्रात ।
आज न ये दिन ही अपने हैं
आज न अपनी रात!
पतन, पतन की सीमा का भी
होता है कुछ अन्त !
उठने के प्रयत्न में
लगते हैं अपराध अनंत !
यहीं छिपे हैं धन्वा मेरे
यहीं छिपे हैं तीर,
मेरे आँगन के कण-कण में
सोये अगणित वीर!
अभियान-गीत
चल रे चल!
अडिग! अचल!
घन गर्जन, हिम वर्षण!
तिमिर सघन, तड़ित पतन !
शिर उन्नत, मन उन्नत !
प्रण उन्नत, क्षत विक्षत !
रुक न विचल!
झुक न विचल!
गति न बदल !
अनिल ! अनल!
चल रे चल!
चिर शोषण, चिर दोहन!
रक्त न तन, बुझे नयन !
बड़वानल ! जल जल जल!
जगती तल कर उज्ज्वल
करुणा जल
ढल ढल ढल!
सत्य सबल!
आत्म प्रबल!
चल रे चल!
कर बंधन, उर बंधन !
तन बंधन, मन बंधन !
अविचल रण, अविरल प्रण!
शत शत व्रण, हों क्षण क्षण!
शिर करतल!
जय करतल!
बलि करतल!
बल करतल!
बल भर बल!
चल रे चल!
गढ़वाल के प्रति
जाग रे जाग
पहाड़ी देश
जगा बंगाल, जगा पांचाल,
जगा है सारा देश अशेष,
जाग! तू भी मेरे गढ़वाल,
हिमाचल के प्यारे गढ़देश !
साज सुंदर
केसरिया देश
जाग ! रे जाग!
पहाड़ी देश !
बह रहा है नयनों से नीर
नहीं रे तन पर कोई चीर,
देखती तेरी मुख की ओर,
हो रही जननी आज अधीर
देख जननी के
रूखे केश
जाग रे जाग !
पहाड़ी देश ।
लिया तुझ में गंगा ने जन्म
किया हरियाला सारा देश,
बहा दे स्वतंत्रता का स्रोत
अरे ओ पावन पुण्य प्रदेश!
यातनायें हो
जायें शेष,
जाग रे जाग!
पहाड़ी देश !
हिमाचल के प्यारे गढ़वाल
आज भारत की लाज संभाल
शुभ अंचल में लगा न दाग
उठा रे अपनी भुजा विशाल
शक्ति है तुझ में
अतुल अशेष
जाग रे जाग!
पहाड़ी देश ।
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