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पुखराज-गुलज़ार-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Gulzar 1
तन्हा
कहाँ छुपा दी है रात तूने
कहाँ छुपाये है तूने अपने गुलाबी हाथों के ठन्डे फाये
कहाँ है तेरे लबों के चेहरे
कहाँ है तू आज – तू कहाँ है ?
ये मेरे बिस्तर पे कैसा सन्नाटा सो रहा है ?
मौसम
बर्फ पिघलेगी जब पहाड़ों से
और वादी से कोहरा सिमटेगा
बीज अंगड़ाई लेके जागेंगे
अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे
सब्ज़ा बह निकलेगा ढलानों पर
गौर से देखना बहारों में
पिछले मौसम के भी निशाँ होंगे
कोपलों की उदास आँखों में
आँसुओं की नमी बची होगी
लैण्डस्केप
दूर सुनसान- से साहिल के क़रीब
इक जवाँ पेड़ के पास
उम्र के दर्द लिए, वक़्त का मटियाला दुशाला ओढ़े
बूढ़ा – सा पाम का इक पेड़ खड़ा है कब से
सैंकड़ों सालों की तन्हाई के बाद
झुकके कहता है जवाँ पेड़ से: ‘यार,
सर्द सन्नाटा है तन्हाई है,
कुछ बात करो’
अख़बार
सारा दिन मैं खून में लथपथ रहता हूँ
सारे दिन में सूख-सूख के काला पड़ जाता है ख़ून
पपड़ी सी जम जाती है
खुरच-खुरच के नाख़ूनों से चमड़ी छिलने लगती है
नाक में ख़ून की कच्ची बू
और कपड़ों पर कुछ काले-काले चकत्ते-से रह जाते हैं
रोज़ सुबह अख़बार मेरे घर
ख़ून से लथपथ आता है
वो जो शायर था चुप सा रहता था
वो जो शायर था चुप-सा रहता था
बहकी-बहकी-सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था
गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!
जमा करता था चाँद के साए
और गीली- सी नूर की बूँदें
रूखे-रूखे- से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही, वो अजीब- सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता था
चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है |
घुटन
जी में आता है कि इस कान में सुराख़ करूँ
खींचकर दूसरी जानिब से निकालूँ उसको
सारी की सारी निचोडूँ ये रगें साफ़ करूँ
भर दूँ रेशम की जलाई हुई भुक्की इसमें
कह्कहाती हुई भीड़ में शामिल होकर
मैं भी एक बार हँसूँ, खूब हँसूँ, खूब हँसूँ
गली में
बारिश होती है तो पानी को भी लग जाते हैं पावँ
दरों दीवार से टकरा के गुज़रता है गली से
और उछलता है छपाकों में
किसी मैच में जीते हुए लड़कों की तरह
जीत कर आते हैं मैच जब गली के लड़के
जूते पहने हुए कैनवास के उछालते हुए गेंदों की तरह
दरों दीवार से टकरा के गुज़रते हैं
वो पानी की छपाकों की तरह