न किसी की आँख का नूर हूँ-बहादुर शाह ज़फ़र-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Bahadur Shah Zafar
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-गुब़ार हूँ
मैं नहीं हूँ नग़मा-ए-जाँ-फ़िज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखों की पुकार हूँ
मेरा रंग रूप बिगड़ गया मेरा यार मुझ से बिछड़ गया
जो चमन ख़िज़ाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ
पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
कोई आ के शम्मा जलाए क्यूँ मैं वो बे-कसी का मज़ार हूँ
न मैं ‘ज़फ़र’ उन का हबीब हूँ न मैं ‘ज़फ़र’ उन का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वा दयार हूँ