नींद नहीं, नींद के किनारे-स्मृति सत्ता भविष्यत् -विष्णु दे -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Vishnu Dey
नींद नहीं, नींद के किनारे
जहाँ बाल का नीलाचल महानीलिमा में बिखर जाता है
लगभग शरीर के कगार पर-
मानो लगभग मानस की मुक्त सीमा पर,
या आकाशभेदी, यद्यपि आकाश नहीं, चोटियों पर,
शरीर की चेतना से सटे-सटे कगारों पर लक्षहीन घूमना,
घूमना या उड़ना, जैसे चील, जैसे बाज
गगनभेड़ या मानो सुनहरा ईगल,
शिकार की खोज में नहीं, सहज तृप्ति से तैरना
दोनों पंख फैला देना, मानो शुद्ध पीलू हो या खम्माच,
मानो जीवन के सारे बन्धन, सारे विकार
सब कुछ छोड़ देना, आशाओं और हताशाओं की भरपाई हो जाने पर,
मन के आकाश में मुक्त, कहिए लक्ष्यहीन,
रोजी की चिन्ता से नहीं, मुनाफ़े के फेर में नहीं,
थीसिस की मांग से नहीं, ख्याति के अरमान में नहीं,
खाली मन के मैदान में, लगभग शरीर के कगार पर,
जहाँ फ्यूग के विस्तार में ऑर्गन की अनन्त आवाज
शान्ति और विपाद की गुनगुनाहट में अक्लान्त निपाद के स्वर उठाती हो,
नींद नहीं, नींद के किनारे मुक्ति का आवेश,
स्मृति के स्तम्भित नीलाचल पर जहाँ सचल स्वप्न में
मनन की प्रबल हिल्लोल से,
मानो परज के आलाप में गमक में तान में
अतल की ताल-ताल पर तरल हिन्दोल में
फ़ैयाजखाँ के मैनाक मन्थित अगाध ऊमिल स्वरों में
अनिर्वचनीय बात उठती हो, छूटती हो, डूबती हो,
उस के बाद नींद, शान्ति, नीलमनील,
उस के बाद बस हरि ओ३म्, समुद्र के तानपूरे
पर आकाश की झंकार ।।
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