तू पूछता है तो सुन-गुरभजन गिल-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Gurbhajan Gill
दूर रहते मेरे बहुमूल्य दोस्त!
तू पूछता है
तुझे निकट चुनाव में दल बदलते
राजनेता कैसे लगते हैं?
तू पूछता है तो सुन
बिल्कुल वैसे
जैसे गाँव के कच्चे घर
रात में खाटों तले
भागे फिरते चूहे नीचे-ऊपर
एकदूसरे से तेज़ आगे-पीछे
रोटियों का चूरा
डिब्बे से निकले दाने
या
खाने-पीने को कुछ ढूँढते
बीच में ही घूमती-फिरती
छछुंदरें
बदबू की लकीर छोड़ती जाती।
कभी चूहेदानी में न आती।
छछुंदरें चूहे बाहर आते तो
बिल्लियां इन्हें खत्म कर देती
पर
अब तो बिल्लियां भी
कुर्सी के लोभ में
देखकर अनदेखा हैं कर देती।
चुहेदानियाँ भी
रंग, नस्ल, जात मुताबिक
करती हैं शिकार बेशर्म!
सचिवालय की घूमने वाली कुर्सियाँ
कॉलेजों युनिवर्सिटियों के
पुराने बूट और नेकटाईयाँ
बारीनुसार मंडी में आ बैठी
तुझे याद है न!
जब हम पढ़ते थे
मज़दूर आते थे सुबह-सवेरे
दिहाड़ी ढूँढने लुधियाना।
मगर ये तो
अहंकार की भरी
वो बोरियाँ हैं जिनका निचला हिस्सा कटा है
कभी नहीं भरती ये।
बेचैनी हैं पिछली उम्र में चढ़े
लोक-सेवा के बुखार से।
कोई नहीं पूछता
अब तक कहाँ थे जनाब!
क्या बताऊँ भाई!
अब तो कोई पहचान ही नहीं रही
कभी दुधारू खरीदते समय भी
बापूजी पूछ लेते
पिछली बार ब्याहने पर
कितना दूध था इसका।
अब तो चमकदार सींगों,
गले पड़े मनकों
और तेल से चमकाए चमड़े का भाव लगता है।
काम कौन पूछता है।
ये लोग समझ गए हैं
कि कुर्सी कैसे कब्जानी है।
किस वक़्त कौन सी पायल
कहाँ छनकानी है।
भोली जनता कैसे भ्रमानी है
सेक्ट्रिएट पर
सीढ़ी कब कहाँ कैसे लगानी है?
दस्तार इनके लिए
नाट्कीय किरदार निभाने की
वेशभूषा समान है।
अजब मौसम है
कि पता ही नहीं लगता
हम ज्यादा भोले हैं
या
वे ही अधिक समझदार हैं
जो चुनावी साल में
कभी अयोध्या मंदिर,
कभी दिल्ली दंगे,
हरमंदिर साहिब हमला
इष्ट के बिखरे पवित्र अंगों का दर्द
गाँव-गाँव लिए फिरते हैं।
बेच-बाच के फिर सो जाते हैं।
तू पूछता है तो सुन
अब तू तो सो जाएगा
खुमार भरा प्याला पीकर।
तेरे वहाँ तो रात है,
पर
हमारे गाँव
दिन-रात एक से हैं, मटमैले।