तुम ही कहो क्या करना है-ग़ुब्बार-ए-अय्याम -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Faiz Ahmed Faiz
जब दुख की नदिया में हमने
जीवन की नाव डाली थी
था कितना कस-बल बांहों में
लोहू में कितनी लाली थी
यूं लगता था दो हाथ लगे
और नाव पूरमपार लगी
ऐसा न हुआ, हर धारे में
कुछ अनदेखी मझधारें थीं
कुछ मांझी थे अनजान बहुत
कुछ बेपरखी पतवारें थीं
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितने चाहो दोश धरो
नदिया तो वही है नाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
अब कैसे पार उतरना है
जब अपनी छाती में हमने
इस देश के घाव देखे थे
था वैदों पर विशवास बहुत
और याद बहुत से नुसख़े थे
यूं लगता था बस कुछ दिन में
सारी बिपता कट जायेगी
और सब घाव भर जायेंगे
ऐसा न हुआ कि रोग अपने
तो सदियों ढेर पुराने थे
वैद इनकी तह को पा न सके
और टोटके सब नाकाम गये
अब जो भी चाहो छान करो
अब चाहे कितने दोश धरो
छाती तो वही है घाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
ये घाव कैसे भरना है
लन्दन, १९८१