जा में दो न समायँ-दर्द दिया है-गोपालदास नीरज-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Gopal Das Neeraj
अर्धरात्रि,
अम्बर स्तब्ध शांत,
धरा मौन…सन्नाटा
…….. …………
थप… थप…थप,
”द्वार पर कौन है ?”
“मैं हूँ तुम्हारा एक याचक,”
“किसलिए आए हो ?”
“एक दृष्टि दान हेतु,”
“नहीं, नहीं, जाओ, लौट जाओ, यहाँ दान नहीं मिलता है,”
“भिक्षु और दाता के बीच जो परदा है,
जिस दम वह जलता है,
तभी द्वार खुलता है,”
…और द्वार बन्द रहा
……. …………..
थप… थप…थप,
”द्वार पर कौन है ?”
“मैं हूँ तुम्हारा ही भक्त एक,”
“आशय क्या ?”
“अपने भगवान का ही दरस तनिक पाना है,
और भोर होते ही वापस लौट जाना है,”
“नहीं, नहीं,
भक्त-भगवान यहाँ दो के लिए ठौर नहीं
दर्शन जो पाना तो अभी हुई भोर नहीं,”
बन्द द्वार बन्द रहा, हुआ कोई शोर नहीं,
………. ………….
थप… थप…थप,
”कौन है ?”
उत्तर नहीं,
“कौन है ?”
उत्तर नहीं,
“कौन है ?”
“वही, जो भीतर है बोल रहा,
दरपन बन रूप जिसका बाहर है डोल रहा,
घूँघट उठाकर जो दरवाज़ा खोल रहा,
भ्रम का जो काजल था धुल गया,
परदा उठा, सूरज-सा खिल गया,
और बन्द द्वार स्वयं खुल गया ।
(एक अज्ञात सूफी कवि की कविता का भावानुवाद)