जरसे-गुल की सदा-सरे-वादी-ए-सीना -फ़ैज़ अहमद फ़ैज़-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Faiz Ahmed Faiz
इस हवस में कि पुकारे जरसे-गुल की सदा
दशतो-सहरा में सबा फिरती है यूं आवारा
जिस तरह फिरते हैं अहले-जुनूं आवारा
हम पे वारफ़तगी-ए-होश की तोहमत न धरो
हम कि रम्माजे-रूमूज़े-ग़मे-पिनहानी हैं
अपनी गरदन पे भी है रिशता-फ़िगन खातिरे-दोस्त
हम भी शौके-रहे-दिलदार के ज़िन्दानी हैं
जब भी अबरू-ए-दरे-यार ने इरशाद किया
जिस बियाबां में भी हम होंगे चले आयेंगे
दर खुला देखा तो शायद तुम्हें फिर देख सकें
बन्द होगा तो सदा के के चले जायेंगे
जुलाई, १९७०