post Contents ( Hindi.Shayri.Page)
- 1 मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
- 2 मेरी ख़्वाहिश कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
- 3 न मैं कंघी बनाता हूँ न मैं चोटी बनाता हूँ
- 4 बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
- 5 अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं
- 6 कोयल बोले या गौरैया अच्छा लगता है
- 7 कहाँ रोना है मुझको दीदा-ए-पुरनम समझता है
- 8 इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती
- 9 बाज़ारी पेटीकोट की सूरत हूँ इन दिनों
- 10 हमारी बेबसी देखो उन्हें हमदर्द कहते हैं
- 11 दामन को आँसुओं से शराबोर कर दिया
- 12 तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको
- 13 हिन्दी कविता- Hindi.Shayri.Page
घर अकेला हो गया -मुनव्वर राना -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Munnawar Rana Ghar Akela Ho Gaya Part 2
मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है
तवायफ़ की तरह अपने ग़लत कामों के चेहरे पर
हुकूमत मंदिरों-मस्जिद का पर्दा डाल देती है
हुकूमत मुँह-भराई के हुनर से ख़ूब वाक़िफ़ है
ये हर कुत्ते आगे शाही टुकड़ा डाल देती है
कहाँ की हिजरतें कैसा सफ़र कैसा जुदा होना
किसी की चाह पैरों में दुपट्टा डाल देती है
ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है
भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है
हसद की आग में जलती है सारी रात वह औरत
मगर सौतन के आगे अपना जूठा डाल देती है
मेरी ख़्वाहिश कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
मेरी ख़्वाहिश कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ
कम-से-बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ
सोचता हूँ तो छलक उठती हैं मेरी आँखें
तेरे बारे में न सोचूँ तो अकेला हो जाऊँ
चारागर तेरी महारत पे यक़ीं है लेकिन
क्या ज़रूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊँ
बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं
शम्अ तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊँ
शायरी कुछ भी हो रुस्वा नहीं होने देती
मैं सियासत में चला जाऊँ तो नंगा हो जाऊँ
न मैं कंघी बनाता हूँ न मैं चोटी बनाता हूँ
न मैं कंघी बनाता हूँ न मैं चोटी बनाता हूँ
ग़ज़ल में आपबीती को मैं जगबीती बनाता हूँ
ग़ज़ल वह सिन्फ़-ए-नाज़ुक़ है जिसे अपनी रफ़ाक़त से
वो महबूबा बना लेता है मैं बेटी बनाता हूँ
हुकूमत का हर एक इनआम है बंदूकसाज़ी पर
मुझे कैसे मिलेगा मैं तो बैसाखी बनाता हूँ
मेरे आँगन की कलियों को तमन्ना शाहज़ादों की
मगर मेरी मुसीबत है कि मैं बीड़ी बनाता हूँ
सज़ा कितनी बड़ी है गाँव से बाहर निकलने की
मैं मिट्टी गूँधता था अब डबल रोटी बनाता हूँ
वज़ारत चंद घंटों की महल मीनार से ऊँचा
मैं औरंगज़ेब हूँ अपने लिए खिचड़ी बनाता हूँ
बस इतनी इल्तिजा है तुम इसे गुजरात मत करना
तुम्हें इस मुल्क का मालिक मैं जीते-जी बनाता हूँ
मुझे इस शहर की सब लड़कियाँ आदाब करती हैं
मैं बच्चों की कलाई के लिए राखी बनाता हूँ
तुझे ऐ ज़िन्दगी अब क़ैदख़ाने से गुज़रना है
तुझे मैँ इस लिए दुख-दर्द का आदी बनाता हूँ
मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी
जलाकर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ
बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है
यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है
चलो माना कि शहनाई मसर्रत की निशानी है
मगर बह शख़्स जिसकी आके बेटी बैठ जाती है
बड़े-बूढे कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं
कुएँ में छुप के आख़िर क्यों ये नेकी बैठ जाती है
नक़ाब उलटे हुए जब भी चमन से वह गुज़रता है
समझकर फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है
सियासत नफ़रतों का ज़ख़्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है
वो दुश्मन ही सही आवाज़ दे उसको मुहब्बत से
सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है
अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं
अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं
तो फिर ऐ मुफ़लिसी हम दाँव पर कासा लगाते हैं
उन्हीं को सर बुलन्दी भी अता होती है दुनिया में
जो अपने सर के नीचे हाथ का तकिया लगाते हैं
हमारा सानहा है ये कि इस दौरे हुकूमत में
शिकारी के लिए जंगल में हम हाँका लगाते हैं
वो शायर हों कि आलिम हों कि ताजिर या लुटेरे हों
सियासत वो जुआ है जिसमें सब पैसा लगाते हैं
उगा रक्खे हैं जंगल नफ़रतों के सारी बस्ती में
मगर गमले में मीठी नीम नीम का पौदा लगाते हैं
ज़्यादा देर तक मुर्दे कभी रक्खे नहीं जाते
शराफ़त के जनाज़े को चलो काँधा लगाते हैं
ग़ज़ल की सल्तनत पर आजतक क़ब्ज़ा हमारा है
हम अपने नाम के आगे अभी राना लगाते हैं
कोयल बोले या गौरैया अच्छा लगता है
कोयल बोले या गौरैया अच्छा लगता है
अपने गाँव में सब कुछ भैय्या अच्छा लगता है
नए कमरों में अब चीज़ें पुरानी कौन रखता है
परिन्दों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है
तेरे आगे माँ भी मौसी लगती है
तेरी गोद में गंगा मैया अच्छा लगता है
कागा की आवाज़ भी चिट्ठी जैसी लगती है
पेड़ पे बैठा एक गवैया अच्छा लगता है
माया -मोह बुढ़ापे में बढ़ जाता है
बचपन में बस एक रुपैया अच्छा लगता है
खुद ही डांटे, खुद ही लगाये सीने से
प्यार में उसका ये भी रवैया अच्छा लगता है
कहाँ रोना है मुझको दीदा-ए-पुरनम समझता है
कहाँ रोना है मुझको दीदा-ए-पुरनम समझता है
मैं मौसम को समझता हूँ मुझे मौसम समझता है
ज़बाँ दो चाहने वालों को शायद दूर कर देगी
मैं बँगला कम समझता हूँ वो उर्दू कम समझता है
हमारे हाल से सब चाहने वाले हैं नावाक़िफ़
मगर एक बेवफ़ा है जो हमारा ग़म समझता है
मुहब्बत करने वाला जान की परवा नहीं करता
वह अपने पाँव की ज़ंजीर को रेशम समझता है
कहाँ तक झील में पानी रहे आँखें समझती हैँ
कहाँ तक ज़ख़्म को भरना है यह मरहम समझता है
इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती
इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती
आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती
इतना मोहताज न कर चश्म-ए-बसीरत मुझको
रोज़ इम्दाद चराग़ों से नहीं ली जाती
ज़िन्दगी तेरी मुहब्बत में ये रुसवाई हुई
साँस तक तेरे मरीज़ों से नहीं ली जाती
गुफ़्तगू होती है तज़ईन-ए-चमन की जब भी
राय सूखे हुए पेड़ों से नहीं ली जाती
मकतब-ए-इश्क़ ही इक ऐसा इदारा है जहाँ
फ़ीस तालीम की बच्चों से नहीं ली जाती
बाज़ारी पेटीकोट की सूरत हूँ इन दिनों
बाज़ारी पेटीकोट की सूरत हूँ इन दिनों
मैं सिर्फ़ एक रिमोट की सूरत हूँ इन दिनों
ज़ालिम के हक़ में मेरी गवाही है मोतबर
मैं झुग्गियों के वोट की सूरत हूँ इन दिनों
मुँह का मज़ा बदलने को सुनते हैं वो ग़ज़ल
टेबुल पे दालमोंट की सूरत हो इन दिनों
हर श्ख़्स देखने लगा शक की निगाह से
मैं पाँच-सौ के नोट की सूरत हूँ इन दिनों
हर शख़्स है निशाने पे मुझको लिए हुए
कैरम की लाल गोट की सूरत हूँ इन दिनों
घर में भी कोई ख़ुश न हुआ मुझको देखकर
यानी मैं एक चोट की सूरत हूँ इन दिनों
मौसम भी अब उड़ाने लगा है मेरी हँसी
इतने पुराने कोट की सूरत हूँ इन दिनों
हमारी बेबसी देखो उन्हें हमदर्द कहते हैं
हमारी बेबसी देखो उन्हें हमदर्द कहते हैं,
जो उर्दू बोलने वालों को दहशतगर्द कहते हैं
मदीने तक में हमने मुल्क की ख़ातिर दुआ मांगी
किसी से पूछ ले इसको वतन का दर्द कहते हैं
किसी भी रंग को पहचानना मुश्किल नहीं होता
मेरे बच्चों की सूरत देख इसको ज़र्द कहते हैं
अगर दंगाइयों पर तेरा कोई बस नहीं चलता
तो फिर सुन ले हुकूमत हम तुझे नामर्द कहते हैं
वो अपने आपको सच बोलने से किस तरह रोकें
वज़ारत को जो अपनी जूतियों की गर्द कहते हैं
दामन को आँसुओं से शराबोर कर दिया
दामन को आँसुओं से शराबोर कर दिया
उसने मेरे इरादे को कमज़ोर कर दिया
बारिश हुए तो झूम के स नाचने लगे
मौसम ने पेड़-पौधों को भी मोर कर दिया
मैं वो दिया हूँ जिससे लरज़ती है अब हवा
आँधी ने छेड़-छेड़ के मुँहज़ोर कर दिया
इज़हार-ए-इश्क़ ग़ैर-ज़रूरी था, आपने
तशरीह कर के शेर को कमज़ोर कर दिया
उसके हसब-नसब पे कोई शक़ नहीं मगर
उसको मुशायरों ने ग़ज़ल-चोर कर दिया
उसने भी मुझको क़िस्से की सूरत भुला दिया
मैंने भी आरज़ूओं को दरगोर कर दिया
तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको
तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको
रोकना पड़ता है आँखों से समुन्दर मुझको
इसमे आवारा मिज़ाजी का कोई दख़्ल नहीं
दश्त-ओ-सहरा में फिराता है मुक़द्दर मुझको
एक टूटी हुई कश्ती का मुसाफ़िर हूँ मैं
हाँ निगल जाएगा एक रोज़ समुन्दर मुझको
इससे बढ़कर मेरी तौहीन -ए-अना क्या होगी
अब गदागर भी समझते हैं गदागर मुझको
ज़ख़्म चेहरे पे, लहू आँखों में, सीना छलनी,
ज़िन्दगी अब तो ओढ़ा दे कोई चादर मुझको
मेरी आँखों को वो बीनाई अता कर मौला
एक आँसू भी नज़र आए समुन्दर मुझको
कोई इस बात को माने कि न माने लेकिन
चाँद लगता है तेरे माथे का झूमर मुझको
दुख तो ये है मेरा दुश्मन ही नहीं है कोई
ये मेरी भाई हैं कहते हैं जो बाबर मुझको
मुझसे आँगन का अँधेरा भी नहीं मिट पाया
और दुनिया है कि कहती है ‘मुनव्वर’ मुझको