ग्रीष्म-कालीन शुक्ल पक्ष और कैलास-प्यार पनघटों को दे दूंगा -शंकर लाल द्विवेदी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankar Lal Dwivedi
(कैलास : आगरा का एक प्राकृतिक स्थल जो सिकंदरा
से एक मील पश्चिम में यमुना-किनारे स्थित है।)
कोलाहल से दूर प्रकृति की सौम्य गोद में,
मुक्त हृदय से हँसता जैसे- महका महुवा।
वंशीधरे कृष्ण के अधरों जैसा- मनहर;
प्राची में उगते दिनमणि जैसा कुछ किंवा।।
विविधाकृतियों में विभक्त यमुना की धारा,
मंद-मंद गति से बहती है ग्रीष्म-काल में।
लगता है कैलास घिरा इस वनस्थली से;
पाटल एक सपर्ण रखा हो रजत-थाल में।।
प्रातः-सायं काल शिवालय में शंख-ध्वनि,
ऋषिकुल-ब्रह्मचर्य आश्रम में वेद-ऋचाएँ।
मन के अवसादों, दाहक सुधियों की ज्वाला;
शान्ति-सुरस-धारा से सहज प्रशांत बनाएँ।।
कण-कण से पुनीत वैदिक-युग के सन्देशे-
मिलते हैं, इस भौतिक युग के प्रति निष्ठा की-
कुत्सित-भ्रामक प्राचीरें विनष्ट होतीं हैं;
पतनोन्मुख होतीं हैं धूसर छत- मिथ्या की।।
सहज, स्निग्ध तारल्य स्नेह के मृद्वंचल का,
प्रकृति विहँस कर, मुक्त करों से बाँट रही है।
इने-गिने कुछ लोग प्राप्त कर पाते जिसको;
कारण छद्म – वेषिनी माया डाँट रही है।।
एक ओर सैकत-तट पर फैली हरियाली,
ककड़ी के पीले फूलों पर धवल चाँदनी।
हरित् वर्ण, पीले टाँकों वाली कंचुकि पर;
धरा-वधू ने ओढ़ रखी हो श्वेत ओढ़नी।।
‘टीं-टीं-टीं टुल्-टुल्’ टिटहरियों का कोलाहल,
स्तब्ध निशा में तुमुल नाद के परिचायक-सा।
‘टुटु-टुटु-टर्र-टर्र’ दादुर का कर्ण-कटु स्वर;
विस्मित-भीत हृदय में चुभता है शायक-सा।।
पल-पल पर कट कर कगार गिरते पानी में,
नन्हीं-नन्हीं चपल ऊर्मियों की ललनाएँ।
छिटक-ठिठक हँसकर बहतीं हैं तीव्र वेग से;
किन्तु प्रथम उनको जल-तल में सहज लिटाएँ।।
नृत्य-गान के समय, कलुषमन-कपटाचारी-
उच्छृंखल युवकों को जैसे ब्रज-बालाएँ।
खीझ भरे-सशंक मन में आक्रोश जगा कर;
नस-नस कर विदीर्ण, भू-रज में सहज सुलाएँ।।
मसृण-रेशमी छितरे मेघों को अस्तंगत-
रवि ने दान दिया अपूर्व स्वर्णिम आभा का।
नील-व्योम लगता है जैसे- कुँवर-कन्हैया;
भुज-पाशों में बाँध रहे हों तन राधा का।।
यमुना के निर्मल जल में प्रतिबिम्ब उसी का,
यत्र-तत्र हरिताभ लहलहाते दूर्वादल।
संजीवनी बूटियों के प्रकाश से जग-मग;
कुहरे में डूबा हो प्रत्यूषी द्रोणाचल।।
रवि-तनया ने एक विशिष्ट घुमाव लिया है,
जिस के बीच सुनहरे गेहूँ के खेतों में-
वृक्षावलियाँ ताड़, ख़जूर और शीशम की;
जाने क्या कहती रहती हैं संकेतों में।।
कंचन-वर्णा, नवयौवना किसी मुग्धा ने,
दीप्ति मान, कमनीय कंठ में रजत-निर्मिता-
हँसली पहन रखी हो, अम्बर के दर्पण में-
छवि निहारती हो प्रमुदित-मन रूप-गर्विता।।
निराभरण, सद्यः स्नाता गौरांग रमणियाँ-
भाव-विभोर, नमित-नयना बन अर्घ्य चढ़ातीं।
कोमल कर-सम्पुट में जल से भरा पात्र ले-
‘विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि परासुव’ गातीं।।
निश्चय आधुनिकाएँ इस क्षण सोती होंगीं,
या अँगड़ाई लेतीं होंगीं वक्ष उघारे।
तन्द्रालस नयनों से मदिरा सी उँड़ेलतीं;
मसल रहीं होंगीं उसीस गलबाँहीं डारे।।
त्रिविध समीर-ताप को भूयोभूयः वर्जित-
करती है ‘इस ओर न आओ, अनत बसो तुम।
सुनो, अन्यथा अभिशापों के भागी होगे;
हठवादी न बनो, प्राणों का मोह करो तुम’।।
पंक्तिबद्ध खग-वृंद कोटरों से निर्गत हो,
कल-निनाद से छेड़ दिव्य-संगीत, मोद में-
भर कर, एक साथ अपनी पाँखें फैलाए-
जाने कहाँ चले जाते अन्न की खोज में।।
‘सादा-जीवन, उच्च-विचारा’ वाले रावी,
मौलिक जीवन-चिन्तन में रत्, यहीं मुदित हैं।
अनति दूर जब नगर-निवासी व्यर्थ, परस्पर-
उलझ रहे हैं, रोग-ग्रस्त हैं, भोग-तृषित हैं।।
नई सभ्यता ने इसके पुनीत चरणों में,
यद्यपि अपना कलुषित माथा टेक दिया है।
क्रूर-काल ज्वाला ने अरुणिम, कोमल-कोमल-
गालों को अपनी लपटों से सेक दिया है।।
फिर भी यह अस्तित्व सँम्हाल रखे है अपना,
और आचरण को भी किसी रुग्ण ऋषि जैसा।
ताज प्रेमियों! नैसर्गिक सुषमा का यह घर;
आज विवश-व्याकुल है किसी अनाथ तनय-सा।।
22 मार्च, 1965