गीतिका (६)-शंकर कंगाल नहीं-शंकर लाल द्विवेदी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Shankar Lal Dwivedi
इस गाँव में रुका क्या? नीलाम हो रहा हूँ।
बदनाम तो नहीं था, बदनाम हो रहा हूँ।।
यों साथ हूँ सभी के, सब जानते मुझे हैं।
आसार दीखते हैं, गुमनाम हो रहा हूँ।।
अंगार का कथन है, ‘मैं मौन सो रहा था।
कुछ पाँव जल गए हैं, कोहराम हो रहा हूँ’।।
मैं सींचता हूँ उनको, यह अंकुरों का मत है।
कीटाणुओं के जाने नाकाम हो रहा हूँ।।
सम्बन्ध की कृपा है, जो हो रहा है कुछ भी।
उस काम का प्रतीक्षित परिणाम हो रहा हूँ।।
तब हो सकूँगा ‘शंकर’, जब काल-कूट पी लूँ।
गो-गोप का सलोना ‘घनश्याम’ हो रहा हूँ।।
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