post Contents ( Hindi.Shayri.Page)
- 1 अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
- 2 अहल-ए-दिल और भी हैं अहल-ए-वफ़ा और भी हैं
- 3 पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है
- 4 पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से मुस्कुराओ तो कोई बात बने
- 5 फ़न जो नादार तक नहीं पहुँचा
- 6 बरबाद-ए-मोहब्बत की दुआ साथ लिए जा
- 7 बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयाँ निकले
- 8 बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों मोहब्बतों के दिए जला के
- 9 भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागर से हम
- 10 भूले से मोहब्बत कर बैठा, नादाँ था बेचारा, दिल ही तो है
- 11 मेरी तक़दीर में जलना है तो जल जाऊँगा
- 12 मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
- 13 हिन्दी कविता- Hindi.Shayri.Page
ग़ज़ल -साहिर लुधियानवी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Sahir Ludhianvi Part 3
अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
क्या चाहती है उन की नज़र पूछते चलो
हम से अगर है तर्क-ए-तअ’ल्लुक़ तो क्या हुआ
यारो कोई तो उन की ख़बर पूछते चलो
जो ख़ुद को कह रहे हैं कि मंज़िल-शनास हैं
उन को भी क्या ख़बर है मगर पूछते चलो
किस मंज़िल-ए-मुराद की जानिब रवाँ हैं हम
ऐ रह-रवान-ए-ख़ाक-बसर पूछते चलो
अहल-ए-दिल और भी हैं अहल-ए-वफ़ा और भी हैं
अहल-ए-दिल और भी हैं अहल-ए-वफ़ा और भी हैं
एक हम ही नहीं दुनिया से ख़फ़ा और भी हैं
हम पे ही ख़त्म नहीं मस्लक-ए-शोरीदा-सरी
चाक-ए-दिल और भी हैं चाक-ए-क़बा और भी हैं
क्या हुआ गर मिरे यारों की ज़बानें चुप हैं
मेरे शाहिद मिरे यारों के सिवा और भी हैं
सर सलामत है तो क्या संग-ए-मलामत की कमी
जान बाक़ी है तो पैकान-ए-क़ज़ा और भी हैं
मुंसिफ़-ए-शहर की वहदत पे न हर्फ़ आ जाए
लोग कहते हैं कि अर्बाब-ए-जफ़ा और भी हैं
पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है
पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है
सुरमई उजाला है चम्पई अंधेरा है
दोनों वक़्त मिलते हैं दो दिलों की सूरत से
आसमाँ ने ख़ुश हो कर रंग सा बिखेरा है
ठहरे ठहरे पानी में गीत सरसराते हैं
भीगे भीगे झोंकों में ख़ुशबुओं का डेरा है
क्यूँ न जज़्ब हो जाएँ इस हसीं नज़ारे में
रौशनी का झुरमुट है मस्तियों का घेरा है
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से मुस्कुराओ तो कोई बात बने
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से मुस्कुराओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से कुछ नहीं होता सर उठाओ तो कोई बात बने
ज़िंदगी भीक में नहीं मिलती ज़िंदगी बढ़ के छीनी जाती है
अपना हक़ संग-दिल ज़माने से छीन पाओ तो कोई बात बने
रंग और नस्ल ज़ात और मज़हब जो भी है आदमी से कमतर है
इस हक़ीक़त को तुम भी मेरी तरह मान जाओ तो कोई बात बने
नफ़रतों के जहान में हम को प्यार की बस्तियाँ बसानी हैं
दूर रहना कोई कमाल नहीं पास आओ तो कोई बात बने
फ़न जो नादार तक नहीं पहुँचा
फ़न जो नादार तक नहीं पहुँचा
अभी मेयार तक नहीं पहुँचा
उस ने बर-वक़्त बे-रुख़ी बरती
शौक़ आज़ार तक नहीं पहुँचा
अक्स-ए-मय हो कि जल्वा-ए-गुल हो
रंग-ए-रुख़्सार तक नहीं पहुँचा
हर्फ़-ए-इंकार सर बुलंद रहा
ज़ोफ़-ए-इक़रार तक नहीं पहुँचा
हुक्म-ए-सरकार की पहुँच मत पूछ
अहल-ए-सरकार तक नहीं पहुँचा
अद्ल-गाहें तो दूर की शय हैं
क़त्ल अख़बार तक नहीं पहुँचा
इन्क़िलाबात-ए-दहर की बुनियाद
हक़ जो हक़दार तक नहीं पहुँचा
वो मसीहा-नफ़स नहीं जिस का
सिलसिला-दार तक नहीं पहुँचा
बरबाद-ए-मोहब्बत की दुआ साथ लिए जा
बरबाद-ए-मोहब्बत की दुआ साथ लिए जा
टूटा हुआ इक़रार-ए-वफ़ा साथ लिए जा
इक दिल था जो पहले ही तुझे सौंप दिया था
ये जान भी ऐ जान-ए-अदा साथ लिए जा
तपती हुई राहों से तुझे आँच न पहुँचे
दीवानों के अश्कों की घटा साथ लिए जा
शामिल है मिरा ख़ून-ए-जिगर तेरी हिना में
ये कम हो तो अब ख़ून-ए-वफ़ा साथ लिए जा
हम जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाएँगे तन्हा
जो तुझ से हुई हो वो ख़ता साथ लिए जा
बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयाँ निकले
बहुत घुटन है कोई सूरत-ए-बयाँ निकले
अगर सदा न उठे कम से कम फ़ुग़ाँ निकले
फ़क़ीर-ए-शहर के तन पर लिबास बाक़ी है
अमीर-ए-शहर के अरमाँ अभी कहाँ निकले
हक़ीक़तें हैं सलामत तो ख़्वाब बहुतेरे
मलाल ये है कि कुछ ख़्वाब राएगाँ निकले
उधर भी ख़ाक उड़ी है इधर भी ख़ाक उड़ी
जहाँ जहाँ से बहारों के कारवाँ निकले
बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों मोहब्बतों के दिए जला के
बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों मोहब्बतों के दिए जला के
मिरी वफ़ा ने उजाड़ दी हैं उमीद की बस्तियाँ बसा के
तुझे भुला देंगे अपने दिल से ये फ़ैसला तो किया है लेकिन
न दिल को मालूम है न हम को जिएँगे कैसे तुझे भुला के
कभी मिलेंगे जो रास्ते में तो मुँह फिरा कर पलट पड़ेंगे
कहीं सुनेंगे जो नाम तेरा तो चुप रहेंगे नज़र झुका के
न सोचने पर भी सोचती हूँ कि ज़िंदगानी में क्या रहेगा
तिरी तमन्ना को दफ़्न कर के तिरे ख़यालों से दूर जा के
भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागर से हम
भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागर से हम
ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम
कुछ और बढ़ गए जो अँधेरे तो क्या हुआ
मायूस तो नहीं हैं तुलू-ए-सहर से हम
ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
क्यूँ देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम
भूले से मोहब्बत कर बैठा, नादाँ था बेचारा, दिल ही तो है
भूले से मोहब्बत कर बैठा, नादाँ था बेचारा, दिल ही तो है
हर दिल से ख़ता हो जाती है, बिगड़ो न ख़ुदारा, दिल ही तो है
इस तरह निगाहें मत फेरो, ऐसा न हो धड़कन रुक जाए
सीने में कोई पत्थर तो नहीं एहसास का मारा, दिल ही तो है
जज़्बात भी हिन्दू होते हैं चाहत भी मुसलमाँ होती है
दुनिया का इशारा था लेकिन समझा न इशारा, दिल ही तो है
बेदाद-गरों की ठोकर से सब ख़्वाब सुहाने चूर हुए
अब दिल का सहारा ग़म ही तो है अब ग़म का सहारा दिल ही तो है
मेरी तक़दीर में जलना है तो जल जाऊँगा
मेरी तक़दीर में जलना है तो जल जाऊँगा
तेरा वा’दा तो नहीं हूँ जो बदल जाऊँगा
सोज़ भर दो मिरे सपने में ग़म-ए-उल्फ़त का
मैं कोई मोम नहीं हूँ जो पिघल जाऊँगा
दर्द कहता है ये घबरा के शब-ए-फ़ुर्क़त में
आह बन कर तिरे पहलू से निकल जाऊँगा
मुझ को समझाओ न ‘साहिर’ मैं इक दिन ख़ुद ही
ठोकरें खा के मोहब्बत में सँभल जाऊँगा
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया
बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया
जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया
ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया
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