post Contents ( Hindi.Shayri.Page)
- 1 इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें
- 2 इसे सामान-ए-सफ़र जान ये जुगनू रख ले
- 3 गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या-क्या है
- 4 घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है
- 5 ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर
- 6 झूठी बुलंदियों का धुँआ पार कर के आ
- 7 धोका मुझे दिये पे हुआ आफ़ताब का
- 8 मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
- 9 मेरे अश्कों ने कई आँखों में जल-थल कर दिया
- 10 ये ज़िन्दगी सवाल थी जवाब माँगने लगे
- 11 ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था
- 12 शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
- 13 समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है
- 14 साथ मंज़िल थी मगर ख़ौफ़-ओ-ख़तर ऐसा था
- 15 हों लाख ज़ुल्म मगर बद-दुआ’ नहीं देंगे
- 16 छू गया जब कभी ख्याल तेरा
- 17 इश्क़ में जीत के आने के लिये काफी हूँ
- 18 नयी हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है
- 19 ज़मीर बोलता है ऐतबार बोलता है
- 20 हिन्दी कविता- Hindi.Shayri.Page
ग़ज़लें-राहत इन्दौरी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Rahat Indori Part 5
इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें
इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें
जितने कमज़र्फ़ हैं महफ़िल से निकाले जायें
मेरा घर आग की लपटों में छुपा है लेकिन,
जब मज़ा है तेरे आँगन में उजाले जायें
ग़म सलामत है तो पीते ही रहेंगे लेकिन,
पहले मैख़ाने की हालत सम्भाले जायें
ख़ाली वक़्तों में कहीं बैठ के रोलें यारो,
फ़ुर्सतें हैं तो समन्दर ही खगांले जायें
ख़ाक में यूँ न मिला ज़ब्त की तौहीन न कर,
ये वो आँसू हैं जो दुनिया को बहा ले जायें
हम भी प्यासे हैं ये एहसास तो हो साक़ी को,
ख़ाली शीशे ही हवाओं में उछाले जायें
आओ शहर में नये दोस्त बनायें “राहत”
आस्तीनों में चलो साँप ही पाले जायें
इसे सामान-ए-सफ़र जान ये जुगनू रख ले
इसे सामान-ए-सफ़र जान ये जुगनू रख ले
राह में तीरगी होगी मिरे आँसू रख ले
तू जो चाहे तो तिरा झूट भी बिक सकता है
शर्त इतनी है कि सोने की तराज़ू रख ले
वो कोई जिस्म नहीं है कि उसे छू भी सकें
हाँ अगर नाम ही रखना है तो ख़ुश्बू रख ले
तुझ को अन-देखी बुलंदी में सफ़र करना है
एहतियातन मिरी हिम्मत मिरे बाज़ू रख ले
मिरी ख़्वाहिश है कि आँगन में न दीवार उठे
मिरे भाई मिरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले
गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या-क्या है
गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या-क्या है
मैं आ गया हूँ बता इन्तज़ाम क्या-क्या है
फक़ीर शेख कलन्दर इमाम क्या-क्या है
तुझे पता नहीं तेरा गुलाम क्या क्या है
अमीर-ए-शहर के कुछ कारोबार याद आए
मैँ रात सोच रहा था हराम क्या-क्या है
घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है
घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है
अब कोई राह दिखा दे कि किधर जाना है
जिस्म से साथ निभाने की मत उम्मीद रखो
इस मुसाफ़िर को तो रस्ते में ठहर जाना है
मौत लम्हे की सदा ज़िंदगी उम्रों की पुकार
मैं यही सोच के ज़िंदा हूँ कि मर जाना है
नश्शा ऐसा था कि मय-ख़ाने को दुनिया समझा
होश आया तो ख़याल आया कि घर जाना है
मिरे जज़्बे की बड़ी क़द्र है लोगों में मगर
मेरे जज़्बे को मिरे साथ ही मर जाना है
ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर
ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर
रास्ते के पत्थरों से ख़ैरियत मालूम कर
टूट कर बिखरी हुई तलवार के टुकड़े समेट
और अपने हार जाने का सबब मालूम कर
जागती आँखों के ख़्वाबों को ग़ज़ल का नाम दे
रात भर की करवटों का ज़ाइक़ा मंजूम कर
शाम तक लौट आऊँगा हाथों का ख़ाली-पन लिए
आज फिर निकला हूँ मैं घर से हथेली चूम कर
मत सिखा लहजे को अपनी बर्छियों के पैंतरे
ज़िंदा रहना है तो लहजे को ज़रा मासूम कर
झूठी बुलंदियों का धुँआ पार कर के आ
झूठी बुलंदियों का धुँआ पार कर के आ
क़द नापना है मेरा तो छत से उतर के आ
इस पार मुंतज़िर हैं तेरी खुश-नसीबियाँ
लेकिन ये शर्त है कि नदी पार कर के आ
कुछ दूर मैं भी दोशे-हवा पर सफर करूँ
कुछ दूर तू भी खाक की सुरत बिखर के आ
मैं धूल में अटा हूँ मगर तुझको क्या हुआ
आईना देख जा ज़रा घर जा सँवर के आ
सोने का रथ फ़क़ीर के घर तक न आयेगा
कुछ माँगना है हमसे तो पैदल उतर के आ
धोका मुझे दिये पे हुआ आफ़ताब का
धोका मुझे दिये पे हुआ आफ़ताब का
ज़िक्रे-शराब में भी है नशा शराब का
जी चाहता है बस उसे पढ़ते ही जायें
चेहरा है या वर्क है खुदा की किताब का
सूरजमुखी के फूल से शायद पता चले
मुँह जाने किसने चूम लिया आफ़ताब का
मिट्टी तुझे सलाम की तेरे ही फ़ैज़ से
आँगन में लहलहाता है पौधा गुलाब का
उठो ऐ चाँद-तारों ऐ शब के सिपाहियों
आवाज दे रहा है लहू आफ़ताब का
मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
दैर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था
देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया
कल यही चेहरा हमारे आइनों पर बार था
अपनी क़िस्मत में लिखी थी धूप की नाराज़गी
साया-ए-दीवार था लेकिन पस-ए-दीवार था
सब के दुख सुख उस के चेहरे पर लिखे पाए गए
आदमी क्या था हमारे शहर का अख़बार था
अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब
इक ज़माना था कि जब मैं भी बहुत ख़ुद्दार था
मेरे अश्कों ने कई आँखों में जल-थल कर दिया
मेरे अश्कों ने कई आँखों में जल-थल कर दिया
एक पागल ने बहुत लोगों को पागल कर दिया
अपनी पलकों पर सजा कर मेरे आँसू आप ने
रास्ते की धूल को आँखों का काजल कर दिया
मैं ने दिल दे कर उसे की थी वफ़ा की इब्तिदा
उस ने धोका दे के ये क़िस्सा मुकम्मल कर दिया
ये हवाएँ कब निगाहें फेर लें किस को ख़बर
शोहरतों का तख़्त जब टूटा तो पैदल कर दिया
देवताओं और ख़ुदाओं की लगाई आग ने
देखते ही देखते बस्ती को जंगल कर दिया
ज़ख़्म की सूरत नज़र आते हैं चेहरों के नुक़ूश
हम ने आईनों को तहज़ीबों का मक़्तल कर दिया
शहर में चर्चा है आख़िर ऐसी लड़की कौन है
जिस ने अच्छे-ख़ासे इक शायर को पागल कर दिया
ये ज़िन्दगी सवाल थी जवाब माँगने लगे
ये ज़िन्दगी सवाल थी जवाब माँगने लगे
फरिश्ते आ के ख़्वाब मेँ हिसाब माँगने लगे
इधर किया करम किसी पे और इधर जता दिया
नमाज़ पढ़के आए और शराब माँगने लगे
सुख़नवरों ने ख़ुद बना दिया सुख़न को एक मज़ाक
ज़रा-सी दाद क्या मिली ख़िताब माँगने लगे
दिखाई जाने क्या दिया है जुगनुओं को ख़्वाब मेँ
खुली है जबसे आँख आफताब माँगने लगे
ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था
ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था
मैं बच भी जाता तो इक रोज़ मरने वाला था
तेरे सलूक तेरी आगही की उम्र दराज़
मेरे अज़ीज़ मेरा ज़ख़्म भरने वाला था
बुलंदियों का नशा टूट कर बिखरने लगा
मेरा जहाज़ ज़मीन पर उतरने वाला था
मेरा नसीब मेरे हाथ काट गए वर्ना
मैं तेरी माँग में सिंदूर भरने वाला था
मेरे चिराग मेरी शब मेरी मुंडेरें हैं
मैं कब शरीर हवाओं से डरने वाला था
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए
मैं अंधेरों से बचा लाया था अपने-आप को
मेरा दुख ये है मिरे पीछे उजाले पड़ गए
जिन ज़मीनों के क़बाले हैं मिरे पुरखों के नाम
उन ज़मीनों पर मिरे जीने के लाले पड़ गए
ताक़ में बैठा हुआ बूढ़ा कबूतर रो दिया
जिस में डेरा था उसी मस्जिद में ताले पड़ गए
कोई वारिस हो तो आए और आ कर देख ले
ज़िल्ल-ए-सुब्हानी की ऊँची छत में जाले पड़ गए
समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है
समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है
जहाज़ खुद नहीं चलते खुदा चलाता है
ये जा के मील के पत्थर पे कोई लिख आये
वो हम नहीं हैं, जिन्हें रास्ता चलाता है
वो पाँच वक़्त नज़र आता है नमाजों में
मगर सुना है कि शब को जुआ चलाता है
ये लोग पांव नहीं जेहन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है
हम अपने बूढे चिरागों पे खूब इतराए
और उसको भूल गए जो हवा चलाता है
साथ मंज़िल थी मगर ख़ौफ़-ओ-ख़तर ऐसा था
साथ मंज़िल थी मगर ख़ौफ़-ओ-ख़तर ऐसा था
उम्र-भर चलते रहे लोग सफ़र ऐसा था
जब वो आए तो मैं ख़ुश भी हुआ शर्मिंदा भी
मेरी तक़दीर थी ऐसी मिरा घर ऐसा था
हिफ़्ज़ थीं मुझ को भी चेहरों की किताबें क्या क्या
दिल शिकस्ता था मगर तेज़ नज़र ऐसा था
आग ओढ़े था मगर बाँट रहा था साया
धूप के शहर में इक तन्हा शजर ऐसा था
लोग ख़ुद अपने चराग़ों को बुझा कर सोए
शहर में तेज़ हवाओं का असर ऐसा था
हों लाख ज़ुल्म मगर बद-दुआ’ नहीं देंगे
हों लाख ज़ुल्म मगर बद-दुआ’ नहीं देंगे
ज़मीन माँ है ज़मीं को दग़ा नहीं देंगे
हमें तो सिर्फ़ जगाना है सोने वालों को
जो दर खुला है वहाँ हम सदा नहीं देंगे
रिवायतों की सफ़ें तोड़ कर बढ़ो वर्ना
जो तुम से आगे हैं वो रास्ता नहीं देंगे
यहाँ कहाँ तिरा सज्जादा आ के ख़ाक पे बैठ
कि हम फ़क़ीर तुझे बोरिया नहीं देंगे
शराब पी के बड़े तजरबे हुए हैं हमें
शरीफ़ लोगों को हम मशवरा नहीं देंगे
छू गया जब कभी ख्याल तेरा
छू गया जब कभी ख्याल तेरा
दिल मेरा देर तक धड़कता रहा
कल तेरा ज़िक्र छिड़ गया घर में,
और घर देर तक महकता रहा
रात हम मैक़दे में जा निकले,
घर का घर शहर मैं भटकता रहा
उसके दिल में तो कोई मैल न था,
मैं खुद जाने क्यूँ झिझकता रहा
मुट्ठियाँ मेरी सख्त होती गयी,
जितना दमन कोई भटकता रहा
मीर को पढते पढते सोया था,
रात भर नींद में सिसकता रहा
इश्क़ में जीत के आने के लिये काफी हूँ
इश्क़ में जीत के आने के लिये काफी हूँ
मैं अकेला ही ज़माने के लिये काफी हूँ
हर हकीकत को मेरी ख्वाब समझने वाले
मैं तेरी नींद उड़ाने के लिये काफी हूँ
ये अलग बात के अब सुख चुका हूँ फिर भी
धूप की प्यास बुझाने के लिये काफी हूँ
बस किसी तरह मेरी नींद का ये जाल कटे
जाग जाऊँ तो जगाने के लिये काफी हूँ
जाने किस भूल भुलैय्या में हूँ खुद भी लेकिन
मैं तुझे राह पे लाने के लिये काफी हूँ
डर यही है के मुझे नींद ना आ जाये कहीं
मैं तेरे ख्वाब सजाने के लिये काफी हूँ
ज़िंदगी…. ढूंडती फिरती है सहारा किसका ?
मैं तेरा बोझ उठाने के लिये काफी हूँ
मेरे दामन में हैं सौ चाक मगर ए दुनिया
मैं तेरे एब छुपाने के लिये काफी हूँ
एक अखबार हूँ औकात ही क्या मेरी मगर
शहर में आग लगाने के लिये काफी हूँ
मेरे बच्चो…. मुझे दिल खोल के तुम खर्च करो
मैं अकेला ही कमाने के लिये काफी हूँ
नयी हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है
नयी हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है
कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है
जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते
सजा न देके अदालत बिगाड़ देती है
मिलाना चाहा है इंसा को जो भी इंसा से
तो सारे काम सियासत बिगाड़ देती है
हमारे पीर तकीमीर ने कहा था कभी
मियां ये आशिकी इज्जत बिगाड़ देती है
ज़मीर बोलता है ऐतबार बोलता है
ज़मीर बोलता है ऐतबार बोलता है
मेरी ज़ुबान से परवरदिगार बोलता है
मैं मन की बात बहुत मन लगा के सुनता हूँ
ये तू नहीं है तेरा इश्तेहार बोलता है
कुछ और काम उसे याद ही नही शायद
मगर वो झूठ बहुत शानदार बोलता है
तेरी ज़ुबान कतरना बहुत ज़रूरी है
तुझे ये मर्ज़ है तू बार बार बोलता है