ख़रबूजे़-कविता-नज़ीर अकबराबादी-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Nazeer Akbarabadi
अब तो बाज़ार के हैं जे़बफ़िज़ा ख़रबूजे़।
हैं जिधर देखो उधर जलवानुमा ख़रबूजे़।
क़न्दो मिश्री की हिलावत तो अयां है लेकिन।
कन्दो मिश्री के भी हैं होश रुबा ख़रबूजे़।
दिलकश इतने हैं कि बाज़ार में लेने तरबूज़।
गर कोई, जावे तो लाता है तुला ख़रबूजे़।
नाशपाती को लगाकर अगर अमरूदो अनार।
हों मुक़ाबिल तो उन्हें गिनते हैं क्या ख़रबूजे़।
सो बढ़ल लेके कठहल भी अगर आवे पक कर।
अपने एक क़ाश से दें उसको हटा ख़रबूज़े।
यार आया तो कहा हमने मंगा दे लड्डू।
हंस के उस शोख़ शकर लब ने कहा ख़रबूजे।
खिन्नियां फ़ालसे मंगवादें तो झुंझलाके कहा।
पूछते क्या हो, तुम्हें कह तो दिया ख़रबूज़े।
हमने देखा कि इधर रग़बतेख़ातिर है बहुत।
हुक्म करते ही दिये ढेर लगा ख़रबूज़े।
छू लिया सेब ज़कन को तो कहा वाह चह खु़श।
तुमने मंगवाए इसी वास्ते क्या ख़रबूज़े।
अब के शफ़तालुए लब से कोई लोगे बोसा।
अच्छी हुर्फ़त को लिये तुमने मंगा ख़रबूज़े।
शक्करें मेवे हों और सबको बहम पहुंचे बहुत।
सो “नज़ीर” ऐसे तो तरबूज़ हैं या ख़रबूज़े॥
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