क्या कीजिए- अब्दुर रहमान राही -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Abdur Rehman Rahi
ज़बान खोलने का न मिले मौक़ा तो क्या कीजिए
दिल ग़म का बोझ न सह सके तो क्या कीजिए
ग़ुलाब की झाड़ी पर ही कपड़े चाक हो गये
सिर पर उनके रक्त से रंगा आसमान है तो क्या कीजिए
चैत की हवा ओस की बूंदों को ठंडक पहुँचाती है
वही हवा हममें ज्वाला भड़का दे तो क्या कीजिए
वे सूखी नदी में डूब गये, किसको क्या बतायें
हम भूख में ज़हरीली घास चबा गये तो क्या कीजिए
राख मले साधु के बगल में छुरी है
मुल्ला की दुआ में है बददुआ तो क्या कीजिए
मासूम बच्चे, पत्थरों पर दम तोड़ गये
दुष्टों की सन्तानों के होते हैं चालीसवें तो क्या कीजिए
अपने भी साये को अब तो है घूरते रहना
यह ज़हरीला अजगर अगर करवट बदल ले तो क्या कीजिए
है तो वह रखवाला शान्ति और अमन का
बौद्धों से पैसे बटोर गया तो क्या कीजिए
जब रखवाला ही सेंध लगाये खज़ाने पर
और घर का चिराग़ घर को जला दे तो क्या कीजिए