क्या कहें आलम में हम इन्सान या हैवान थे-शायरी(कविता) नज़्में -नज़ीर अकबराबादी-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Nazeer Akbarabadi
क्या कहें आलम में हम इन्सान या हैवान थे
खाक थे क्या थे ग़रज़ इक आन के मेहमान थे
कर रहे थे अपन क़ब्ज़ा घेरों की इम्लाक पर
छीन ली उसने तो जाना की हम नादान थे
एक दिन एक उस्ख्वान पर जा पड़ा मेरा जो पाँव
क्या कहें उस वक़्त मेरे दिल में क्या-क्या ध्यान थे
पाँव पड़ते ही ग़रज़ उस उस्त्ख्वआं ने आह की
और कहा ज़ालिम कभी हम भी तो साहिब जान थे
दस्तो प् जानू शिरो-गर्दन शिकम पश्तो कमर
देखने को आँख ओ सुनने की खातिर कान थे
अब्रुओ बीनी जबीं नक्शों निगारे खालो रत
लाल मुरवार्रीद से बेहतर लबो दंदांन थे
रात को सोने को क्या क्या नर्मो नाज़ुक थे पलंग
दिन की खातिर बैठने को ताक और एवान थे
एक ही चक्कर अजल ने आन कर ऐसा दिया
न तो हम थे न वो सारे ऐश के सामान थे
ऐसी बेरहमी से मत रख कर पाँव हम पे ऐ “नजीर”
ओ मियां हम की कभी तेरी तरह इंसान थे
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