post Contents ( Hindi.Shayri.Page)
- 1 अब तक वही बचने की सिमटने की अदा
- 2 अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
- 3 आज मुद्दत के ब’अद होंटों पर
- 4 इक ज़रा रसमसा के सोते में
- 5 इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
- 6 क्यों हाथ जला, लाख छुपाए गोरी
- 7 किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
- 8 चुप रह के हर इक घर की परेशानी को
- 9 जब तुम नहीं होते तो जवानी मेरी
- 10 तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
- 11 दूर वादी में ये नदी ‘अख़्तर
- 12 ना-मुरादी के ब’अद बे-तलबी
- 13 हिन्दी कविता- Hindi.Shayri.Page
क़ितयात -जाँ निसार अख़्तर-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Jaan Nisar Akhtar
अब तक वही बचने की सिमटने की अदा
अब तक वही बचने की सिमटने की अदा
हर बार मनाता है मेरा प्यार तुझे
समझा था तुझे जीत चुका हूँ लेकिन
लगता है कि जीतना है हर बार तुझे
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
कैसी ये किरन फ़ज़ा में फूटी
क्यूँ रंग बरस पड़ा चमन में
क्या क़ौस-ए-क़ुज़ह लचक के टूटी
आज मुद्दत के ब’अद होंटों पर
आज मुद्दत के ब’अद होंटों पर
एक मुबहम सा गीत आया है
इस को नग़्मा तो कह नहीं सकता
ये तो नग़्मे का एक साया है
इक ज़रा रसमसा के सोते में
इक ज़रा रसमसा के सोते में
किस ने रुख़ से उलट दिया आँचल
हुस्न कजला गया सितारों का
बुझ गई माहताब की मशअल
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
कितने नाज़ुक तख़य्युलात के मोड़
कितने गुल-आफ़रीं लबों का रस
कितने रंगीन आँचलों का निचोड़
क्यों हाथ जला, लाख छुपाए गोरी
क्यों हाथ जला, लाख छुपाए गोरी
सखियों ने तो खोल के पहेली रख दी
साजन ने जो पल्लू तेरा खेंचा, तू ने
जलते हुए दीपक पे हथेली रख दी
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
इस क़दर जल्द टूट जाएगा
क्या ख़बर थी कि हाथ लगते ही
फूल का रंग छूट जाएगा
चुप रह के हर इक घर की परेशानी को
चुप रह के हर इक घर की परेशानी को
किस तरह न जाने तू उठा लेती है
फिर आये-गये से मुस्कुराकर मिलना
तू कैसे हर इक दर्द छुपा लेती है
जब तुम नहीं होते तो जवानी मेरी
जब तुम नहीं होते तो जवानी मेरी
सोते की तरह सूख के रह जाती है
तुम आनके बाँहों में जो ले लेते हो
यौवन की नदी फिर से उबल आती है
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
तेरे आरिज़ पे ये शगुफ़्ता गुलाब
रंग-ए-जाम-ए-शराब पर मत जा
ये तो शर्मा गई है तुझ से शराब
दूर वादी में ये नदी ‘अख़्तर
दूर वादी में ये नदी ‘अख़्तर’
कितने मीठे सुरों में गाती है
सुब्ह के इस हसीं धुँदलके में
क्या यहीं भैरवीं नहाती है
ना-मुरादी के ब’अद बे-तलबी
ना-मुरादी के ब’अद बे-तलबी
अब है ऐसा सुकून जीने में
जैसे दरिया में हाथ लटकाए
सो गया हो कोई सफ़ीने में