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क़ितयात -जाँ निसार अख़्तर-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Jaan Nisar Akhtar part 5
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
डाल देता है दिल में इक हलचल
दौड़ते में किसी हसीना का
जैसे आ जाए पाँव में आँचल
यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
रह रह के उमीद के उजाले
छुप छुप के कोई शरीर लड़की
आईने का अक्स जैसे डाले
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
यूँ ही रूठी हुई सी एक नज़र
उम्र भर मैं ने तुझ पे नाज़ किया
तू किसी दिन तो नाज़ कर मुझ पर
ये मुजस्सम सिमटती मेरी रूह
ये मुजस्सम सिमटती मेरी रूह
और बाक़ी है कुछ नफ़स का खेल
उफ़ मेरे गिर्द ये तेरी बांहें
टूटती शाख पर लिपटती बेल
वो बढ़के जो बाँहों में उठा लेते हैं
वो बढ़के जो बाँहों में उठा लेते हैं
हो जाता है मालूम नहीं क्या मुझको
ऐसे में न जाने क्यों सखी लगता है
ख़ुद मेरा बदन फूल से हल्का मुझको
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
कम नहीं शोरिश-ए-जिगर फिर भी
मेरी आँखों के रू-ब-रू है तू
ढूँढती है तुझे नज़र फिर भी
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
आरिज़ों के गुलाब ज़ुल्फ़ का ऊद
बाज़ औक़ात सोचता हूँ मैं
एक ख़ुशबू है सिर्फ़ तेरा वजूद
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