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कविता -सोहन लाल द्विवेदी -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Sohan Lal Dwivedi Part 2
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
मातृभूमि
ऊँचा खड़ा हिमालय
आकाश चूमता है,
नीचे चरण तले झुक,
नित सिंधु झूमता है।
गंगा यमुन त्रिवेणी
नदियाँ लहर रही हैं,
जगमग छटा निराली
पग पग छहर रही है।
वह पुण्य भूमि मेरी,
वह स्वर्ण भूमि मेरी।
वह जन्मभूमि मेरी
वह मातृभूमि मेरी।
झरने अनेक झरते
जिसकी पहाड़ियों में,
चिड़ियाँ चहक रही हैं,
हो मस्त झाड़ियों में।
अमराइयाँ घनी हैं
कोयल पुकारती है,
बहती मलय पवन है,
तन मन सँवारती है।
वह धर्मभूमि मेरी,
वह कर्मभूमि मेरी।
वह जन्मभूमि मेरी
वह मातृभूमि मेरी।
जन्मे जहाँ थे रघुपति,
जन्मी जहाँ थी सीता,
श्रीकृष्ण ने सुनाई,
वंशी पुनीत गीता।
गौतम ने जन्म लेकर,
जिसका सुयश बढ़ाया,
जग को दया सिखाई,
जग को दिया दिखाया।
वह युद्ध–भूमि मेरी,
वह बुद्ध–भूमि मेरी।
वह मातृभूमि मेरी,
वह जन्मभूमि मेरी।
भारत
भारत तू है हमको प्यारा,
तू है सब देशों से न्यारा।
मुकुट हिमालय तेरा सुन्दर,
धोता तेरे चरण समुन्दर।
गंगा यमुना की हैं धारा,
जिनसे है पवित्र जग सारा।
अन्न फूल फल जल हैं प्यारे,
तुझमें रत्न जवाहर न्यारे!
राम कृष्ण से अन्तर्यामी,
तेरे सभी पुत्र हैं नामी।
हम सदैव तेरा गुण गायें,
सब विधि तेरा सुयश बढ़ायें।
वंदना
वंदिनी तव वंदना में
कौन सा मैं गीत गाऊँ?
स्वर उठे मेरा गगन पर,
बने गुंजित ध्वनित मन पर,
कोटि कण्ठों में तुम्हारी
वेदना कैसे बजाऊँ?
फिर, न कसकें क्रूर कड़ियाँ,
बनें शीतल जलन–घड़ियाँ,
प्राण का चन्दन तुम्हारे
किस चरण तल पर लगाऊँ?
धूलि लुiण्ठत हो न अलकें,
खिलें पा नवज्योति पलकें,
दुर्दिनों में भाग्य की
मधु चंद्रिका कैसे खिलाऊँ?
तुम उठो माँ! पा नवल बल,
दीप्त हो फिर भाल उज्ज्वल!
इस निबिड़ नीरव निशा में
किस उषा की रश्मि लाऊँ?
वन्दिनी तव वन्दना में
कौन सा मैं गीत गाऊँ?
तुलसीदास
अकबर का है कहाँ आज मरकत सिंहासन?
भौम राज्य वह, उच्च भवन, चार, वंदीजन;
धूलि धूसरित ढूह खड़े हैं बनकर रजकण,
बुझा विभव वैभव प्रदीप, कैसा परिवर्तन?
महाकाल का वक्ष चीरकर, किंतु, निरंतर,
सत्य सदृश तुम अचल खड़े हो अवनीतल पर;
रामचरित मणि-रत्न-दीप गृह-गृह में भास्वर,
वितरित करता ज्योति, युगों का तम लेता हर;
आज विश्व-उर के सिंहासन में हो मंडित,
दीप्तिमान तुम अतुल तेज से, कान्ति अखंडित;
वाणी-वाणी में गंजित हो बन पावन स्वर,
आज तुम्हीं कविश्रेष्ठ अमर हो अखिल धरा पर!
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