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कविता संग्रह-तीस कविता वर्ष-सीताकांत महापात्र -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Sitakant Mahapatra Part 4
शरद्
साफ कर रहा है शरद्
युद्धक्षेत्र का मटमैला पानी
समाप्त हो गया है युद्ध
समाप्त हो गया है मन्त्रपाठ
हो चुका है महिषासुर-वध
देवी की मर्त्य देह, मिट्टी-पुआल का ढाँचा
पड़ा है नदी-किनारे धूप में
शान्ति-समझौते के स्वर
मँडरा रहे हैं
पवन में आकाश में
काँस-फूल झूल रहे हैं
आनन्द से, आवेग से।
राह भूलना आसान है शरद् में
सच है कि बादल नहीं आते अँधेरा करके
सच है कि धूप दाँय-दाँय नहीं जलती
किन्तु राह नहीं दिखती
युद्धक्षेत्र की नयी शब्दहीनता में
आत्मा के धुंधले प्रकाश में:
शरद् में राह बदलकर
नदी पार करते समय
दूर गाँव जाते साँझ के राहगीर-सा
राह पूछनी पड़ती है
नील कोहरे की परतों से
निर्लिप्त रूप से उड़कर जाती
चिड़ियों के समूह से
नदी की नन्हीं-नन्हीं असंख्य लहरों से
सीने की अबूझ धड़कनों से
अवर्तमान छायारूपिणी, भ्रान्तिरूपिणी देवी से
बरसात की सुबह
आया है बरसात का मौसम
घनघोर बरसाती मौसम
बज रही बादलों की दुन्दुभी
काँप रहा है सवेरा।
फाटक की नीली नामपट्टिका से
मिट चुके हैं सफ़ेद अक्षर कई
छुलकर बारिश की मुलायम अँगुलियाँ बारम्बार
है मौसम बरसात का।
भीगकर जाता है स्कूल बच्चा एकाकी,
बन्द हैं किवाड़, खिड़कियाँ सारी, जबकि
राह किनारे के सभी घरों की
जैसे कहीं नहीं कोई अनन्त काल से
मानों बारिश के खौफ से
हो गये तितर-बितर सभी
सुन पड़ती है कौंध बिजली की
घटाटोप बादलों के लोहारखाने से।
हैं कौन घर में सोये हुए
उदास माँ-बाप ? निश्चिन्त समय ?
गाढ़ी काली मौत का खौफ ?
निरख घने बादल मौत के समान
बरसात का मौसम देख
बच्चे का मन और मौत हैं दोनों बेचैन ।
छुट्टियाँ खत्म हुई हैं बच्चे की
आ गया है वक़्त समझने का
होते हैं सारे सुख खत्म एक दिन
अब आयी है बरसात
है मृत्यु लम्बी छुट्टी पर
सुदूर परदेश में
चाहता है विरही जीवन खो जाना चुपचाप
बादलों के शुभ्र मल्हार करुण राग में।
सपना अपने आप आकर पकड़ जाता है
राह भूली तितली बन
इस एकाकी बदरारी लग्न में
क्या सोच उठते हो तुम
इस्तरी करते हो पोशाक मेरी और टाँग देते हो
(मानो वाकई दूसरे जन्म के लिए)
साफ़-सुथरे कंकाल की अरगनी पर।
आकाश
पेड़-पौधे, गाँव-द्वार मिलकर
सुदूर है जो नील दिगन्त
उसी पर कभी एक थके हारे पथिक-सा
कभी उतावले प्रेमी-सा
झुका होता है जो
उसी का नाम है आकाश।
गहरे खेत के एकाकी ताड़ वृक्ष को
इतनी सुन्दर शून्यता के फ्रेम में
बाँधे रखता है जो
माँ यशोदा बन
बाल कृष्ण को
भींचकर अपनी गोद में
उसी अनभूली स्नेहमयी
विभूति का नाम है आकाश ।
सन्सन् शून्य छाती पर अ
केले घर लौटते निर्जन
कतार के कतार, झुण्ड के झुण्ड
पक्षियों को उड़ा देता है,
हँसाता है, रिझाता है, नचाता है
रंग-बिरंगे बादलों को,
पल में घुप्प काले बादलों की छाया में
नचाता है मोरों को, रुलाता है प्रेमियों को
सिन्दूर के टीप-सा धाप देता है
सारे सृष्टि के जनक सूर्यदेव को,
ब्रह्मचारी के ललाट पर चन्दन के टीके-सा
पूनो के चाँद को,
राह छोड़ देता है चौतरफा
अधीर हवा के लिए
उसी सज्जन जादूगर का नाम है आकाश ।
हर जगह होता है
सैकड़ों जलघट में, गोष्पद सलिल में
निर्जन सिन्धु में, छलछल ओस की बूँदों में
हालाँकि कब नहीं था-कहाँ नहीं होता
उसी अन्तिम अनुपस्थिति का नाम तो है आकाश ।
कार्य और कारण का,
जन्म और मरण का क्रीतदास
पग-पग पर हँसी-रुलाई,
हानि-लाभ कर्मवश
देखता हूँ मैं शून्यता को
और पूछता हूँ
आत्माराम, शून्यमय ओ निरंजन
बनूँगा नहीं क्या मैं कभी
आकाश ?
कविता का जन्म
जीव की अल्प शक्ति
शत युवती एक पति (उड़िया भागवत)
एक:
इतने सपनों के लिए रातें कहाँ
दिन कहाँ इतने दृश्यों के लिए ?
खड़ा रहता है पेड़ अपनी जगह
लक्ष्मण रेखा लाँघ जाता नहीं कहीं
नये पत्तों, फूलों में सुनाई देती है हँसी उसकी
पतझड़ में रोता है धाड़ें मार-मार ।
जड़ें उसकी अँधेरे में सगरपुत्रों-सी
ढूँढ़ती रहती हैं कुछ काली मिट्टी कुरेदती
सुनसान हवा और आकाश में अँगुलियाँ
ढूँढ़ती रहती हैं कुछ टोह टोहकर ।
कितनी सुन्दर चिड़िया
न जाने किस देश से उड़कर आती है
गीत सुनाई देता है उसका दिन भर
कोमल सुबह और करुण साँझ को
फिर क्या होता अहा,
वह कहाँ उड़ जाती है !
पेड़ रटता रह जाता है गीत उसका
काश ! एक बार लौट आती वह बातूनी
उसकी राह तकते-तकते
पत्ते झड़ते चले जाते हैं
छाल भी मोटी होती चली जाती है
दिन बीतते चले जाते हैं।
मैं तो उस पेड़ का साथी हूँ बचपन का
उसकी जड़ के अँधेरे अतल का
अभिशप्त साहसी जीवनचर्या
मेरी शिराओं के रक्त-प्रवाह में
आकाश के मौन में
व्याकुल हताश उसाँसें उसकी
बजने लगती हैं
मेरे प्राणों के प्रत्येक परदे में।
जी करता, सब छोड़ छाड़
कन्धे पर लादकर ले जाता उसे
जैसे शिव की गोद में सती,
सब-कुछ दिखाता उसे।
पहाड़ समुद्र नदी गाँव
रोग शोक जरा व्याधि जन्म मरण
रंग-बिरंगी चिड़ियाँ
तरह-तरह के उन्माद-भरे सपने
दृश्य के बाद दृश्य कई
दिन के बाद रात और
रात के बाद दिन, फिर दिन |
दो:
गौरेया से मिला अचानक
कैस्पियन सागर किनारे
फुर्र से उड़कर आती है,
मेरी अर्थहीन बातों में घोंसला बनाती है
किचिर-पिचिर करती है।
मेरे सूखे शब्द उसी में
आषाढ़ के बादलों की तरह झुक जाते हैं
रस और अर्थ के बोझ से
मेरे दुःख का बोझ उठाकर
अपने नन्हें डैनों पर रखती है
लगता अगले ही क्षण
दुलरायेगी वह मुझे शायद
मुग्ध हो देखती मेरी आँखों की ओर
और सहसा पूछती-
“निश्चित ही नहीं पहचानते ;
मैं हूँ परनतनी
उस गौरैया की जो तुम्हारी सहेली थी
तुम्हारे गाँव की फूस की कोठरी में,
ऊपर से तिनके और
फूस जान-बूझकर गिराकर और
तरह-तरह से नृत्य करके
तुम्हें अन्यमनस्क करती थी
यहाँ तक कि परीक्षा के दिनों में भी।”
मेरा प्राण-पाखी समझ जाता उसकी भाषा
तुच्छ समझता अणिमादि अष्टवर्ग सिद्धियों को
उसकी आँखों में देख,
मेरे अन्दर सूर्य
जब पश्चिम आकाश में ढलता
विदाई का आयोजन दिख जाता अस्ताचल में
मन और हृदय जलता
सन्ताप और मनस्ताप के तुषानल में
वह तो कहती-नहीं, नहीं
स्वप्न है, दृश्य है
अन्त नहीं, शोक नहीं,
दुःख नहीं, मृत्यु भी नहीं।
तीन :
जो जला जाता है
पल भर भी रुकता नहीं
जो रुक जाता है
कितनी ही मिन्नत करने पर भी
एक शब्द तक कहता नहीं
उसके लिए तो शब्द चाहिए
आकारहीन अशब्द शब्द
शब्द जो यन्त्रणा के विष के लिए उपचार है।
अपराह्न लटका रहता है आकाश से
थकान और विषाद जम जाते हैं छाती तले
आँखें लाल किये निकलता है सूर्य
छतरी-छड़ी लिये
नील नदी भीगी-भीगी आँखों से
सहसा बुलाती है
अल्हड़ किशोरी
और मुझे लगता
अप्रैल का काहिरा और नील नदी यह नहीं
फागुनी पूर्णिमा की चाँदनी में
हमारे गाँव की चित्रोत्पला बुला रही है
आँखों के इशारे से।
मैं तो डूबता रहता मछली-सा
द्वापर त्रेता और कलि कितने युग बह जाते हैं
कई जन्म, कई मरण खत्म हो जाते हैं
मेरे अन्दर कौन-सी नदी उमड़ती है
दूर से लगती है आत्मा
मरुभूमि का पिरामिड
सरल शब्दों की लोरी
नदी किनारे
गाँव के छोर पर नारियल और आम के पेड़
स्वप्न, दृश्य
हँसी, रुलाई मिली
न जाने कितनी लहरें।
चार :
कभी-कभी आँखें खोल देखते ही
प्रशान्त शून्य आकाश चूमता है
और कभी अचानक खुभो देता है आग
मेरे ऊपर उदार तपस्वी-सा
मुँह दिखता है आकाश का
बादल दिखता है
भादों के धान-खेत की गाभिन लहर
पैर तले लोटते रहते हैं
युद्धक्षेत्र, कबन्ध और आर्तनाद
वक़्त लगता है
अवरुद्ध, अभिशप्त पृथ्वी को पहचानने में
इतना दुःख, इतना धैर्य, पाप-पुण्य चाहिए
पाने को अन्त में विनाशकारी भाग्य ।
देह मेरी उड़ जाती है हवा में
सूखा पत्ता हूँ मैं
भर दुपहरी झेलता हूँ
उदास हवा के साथ
और रास्ते में मिलता हूँ
उसी खोयी-खोयी-सी चिरैया से
अब वह लौट रही थी
न जाने क्यों रोती हुई मन मारकर !
शोक इतना उग्रतपा है
यह कहा भी नहीं जाता
दिन बीत जाने पर
खरी-खोटी उसकी
सही भी नहीं जाती।
पाँच :
कभी-कभी पूरा आकाश
थके-हारे शिशु-सा
आकर सो जाता है चौरे के पास
उसकी आँखों में बहने लगता है
मेरा सारा अतीत
माँ के सो जाने के बाद
बुझ जाने के बाद संझाबाती।
वह तो महज एक चिट्ठी है
ग़लत पते की
कभी न पहुँचेगी
मेरे मन के उजाड़ गाँव में
सूर्योदय ही तो गढ़ता है
उस गाँव में
अद्भुत सप्तम स्वर्ग और
मुक्ति-मण्डप
सूर्यास्त जो नाना करतब दिखाकर
सब कुछ संहारता है।
उस गाँव के
मेरे जर्जर काया-घर में
बहता है निरन्तर नवद्वार
अस्थि पंजर पर ढंके हैं रोएँ और चर्म
बँधी हैं रुधिर-शिराएँ
कौन-सा गुरु-वाक्य है वह
मैं क्या जानूँ अपात्र
फिर भी तो आँखें बन्द कर
करता हूँ पालन उसके अनुशासन का
स्वप्न देखता हूँ पूरी रात
कर्म की जकड़ में
देखता हूँ दृश्य दिन भर
उनींदे क्रोध में बस
जलती है आत्मा ईर्ष्या-द्वेष के दावानल में।
वह तो सिर्फ पालन है
गुरु-वाक्य का
उस जर्जर घर में
हूँ मैं दुराचारिणी।
छह :
आकाश शब्द का तनु
शब्द मँडराता है स्वप्न में, दृश्य में
शब्द गढ़ा जाता है या गढ़ जाता है
प्रेम में, मृत्यु में,
चराचर संसार जनमता है उसके आनन्द से
दुर्जय दुःख से।
उच्चरता है कौन
सुनता है कौन
हैं किसके ये शब्द ?
अपात्र पात्र नहीं जानता,
अनर्थ अर्थ नहीं गिनता
कपास से वस्त्र की तरह
इन्द्रियों के सप्त छन्दों में
शब्दों से बुनता है पृथ्वी
कौन है वह अद्भुत सामर्थ्य का बुनकर ?
शब्द के दो नयनों में उगता है रवि
उसके मुख में अनल का प्रकाश
शब्द के ललाट पर जलती है अनबुझ
क्रोधशिखा मेरे मन की
सिर पर अभिषिक्त समग्र आकाश
मेघपुंज केश-राशि
कण्ठ में सारी कविताएँ
नदी बहती है
शिरा-उपशिरा से होकर
मृत्यु-सी स्नेह-सी स्वप्न-सी दृश्य-सी
खींचती है उसकी शुभ्र ममता।
शब्द पैदा करता है
मेरे अन्दर आनन्द की अबूझ सिसकियाँ
शब्द जला डालता है
मेरे सीने के शोक और सन्ताप
तमाम अनजान आँसुओं को
शब्द गढ़ता है
मेरे हृदय के टूटे मन्दिर में
हाथ-पैर हीन और अधगढ़ा वही प्रेमदेवता
शब्द तोड़ डालता है
सारे देहाभिमान, लीलाएँ, बालकेलि, स्वप्न दृश्य ।
शब्द वामन जो है
एक डग में ही आ जाते मि और गगन
दूसरे डग में समूचा शून्य
और जगह है ही कहां
उस मायावी के तीसरे डग के लिए ?
मैं तो सिर झुका लेता हूँ चुपचाप
उस ब्राह्मण के पाँव में।
सात :
कौन-सी आस लिये
दिन-दिन-भर, रात-रात भर
बस राह देखता रहता हूँ सब की
कीचड़ और फूलों की आँखों से
जन्म-जन्मान्तर मेरा दीखता है साफ़ ।
मैं जन्म लेता हूँ प्रति क्षण
मैं होता हूँ हर्ष-शोक-विमोहित समस्त भुवन में
मैं दाई हूँ चींटी के जापाघर में
मैं मन मसोसे बैठता हूँ
गेंदे की रोग-शय्या किनारे
मैं शववाहक हूँ
उस चिड़िया की अन्तिम यात्रा में
रक्ताक्त होता हूँ मैं
जब कोई तोड़ता है
उस पेड़ के डाल-पत्ते, मेरे मित्र-
मैं रोता हूँ अधमरी दूब की उसाँसों में
मेरे चेहरे पर हँसी फूटती है
आकाश को बादल
और चातक को बारिश मिलने पर।
मैं तो चिरकाल
जड़ा रहता हूँ, डूबा रहता हूँ
नया रूप धरता हूँ
रंगीन तितली के अमाप लोभ से
नन्हीं मकड़ी की अतृप्त प्यास से :
खिलते फूल के उन्माद में,
पहाड़ के उस पार डूबते चाँद के शोक में,
भोर में हवा की अन्तिम हताशा में,
संन्यासी के प्रणव ओंकार में
मैं नया जन्म लेता हूँ
मैं तो नित्य करता हूँ मृत्यु-वरण
रूपजीवी गणिका के पश्चात्ताप और क्लान्ति में
घिसट घिसटकर चलते
केंचुए की लक्ष्यहीनता में
चटख चाँदनी से धुले कोढ़ी के
मादलनुमा देह के रिसते घाव में।
अक्षर-अक्षर में मेरा पुनर्जन्म
मृत्यु मेरी प्रत्येक शब्द के कोण में
ध्वनित मेरा जीवन
क्षण क्षण, उच्चारण में
स्वप्न और दृश्यों के सम्मोहित
सातवें आँगन में।
इतने सपनों के लिए
भला रातें कहाँ
दिन कहाँ
इतने दृश्यों के लिए !!
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